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सकारात्मक सोचिए : सफलता पाइए
जाय तो वह मनुष्य न रहकर ‘दोपाया' जानवर हो जाएगा। मनुष्य जब अपने जीवन में उदासीनता, निराशा या अकर्मण्यता को अपनाता है तो वह अपनी सोच के प्रति नकारात्मक हो जाता है। शरीर के स्नान से पहले विचारों का स्नान होना चाहिए। पानी उबालकर पीएँ, यह ठीक है, लेकिन किसी के विचारों को प्रासुक (फिल्टर) करके ग्रहण करना उबला पानी पीने से भी श्रेष्ठ होता है।
जो तत्त्व दिन-रात सतत जारी रहता है, उसी के प्रति मनुष्य अगर निर्मूल्य भाव अपना बैठे तो उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। मनुष्य की सारी शक्ति और सबलता मस्तिष्क में निहित है। शारीरिक दृष्टि से मूल्यांकन करने पर हम पाते हैं कि न तो वह पक्षी की तरह आकाश में उड़ सकता है, न ही बंदर की तरह पेड़ों पर इधर से उधर छलांग लगा सकता है, न ही तितली की तरह पुष्पों पर मँडरा कर मधुपान कर सकता है, न ही उसके पास बाज़ की तरह तीक्ष्ण नजर है, न ही बाघ की तरह नुकीले नाखून हैं, न ही चीते की तरह फुर्तीलापन। मनुष्य में ऐसा है ही क्या जिस पर वह गर्व कर सके? अरे, उसकी छः फुटी काया को तो डेढ़ इंच का बिच्छू भी धूल-धूसरित करने में समर्थ है। मनुष्य शरीर से इतना सबल नहीं है कि उस पर गर्व कर सके। लेकिन फिर भी प्रकृति ने मनुष्य को वह संपदा और शक्ति प्रदान की है जिस पर मनुष्य गर्व और गौरव कर सकता है। वह शक्ति और संपदा है ‘सोचने की क्षमता'। किसी को भी समझने की शक्ति, किसी भी बिन्दु पर विवेकपूर्वक निर्णय करने की शक्ति ही 'सोचने की क्षमता' कहलाती है।
__ मनुष्य सोचता है, इसीलिए वह मनुष्य है। मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। आप सोचते हैं, इसलिए आप हैं। सोचने की क्षमता ही हमें पशुओं से अलग करती है। यह सोचने की ही क्षमता है जिसके बल पर मनुष्य सुपरसॉनिक जेट विमान बना सका। फैक्स, टी.वी. और चन्द्रलोक की यात्रा आदि में मानवीय सोच के ही परिणाम निहित हैं।
सोच यदि सकारात्मक हो तो निश्चित ही उसका परिणाम चिन्तन और सृजन है; सोच यदि नकारात्मक हो तो यह मानकर चलें कि उसका परिणाम चिंता और अवमूल्यन है। नकारात्मक सोच के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।
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