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देव तू ही, महादेव तू ही
वेटा मारे बाप को, नारि हरे भरतार ।
इस परिग्रह के कारणे, अनरथ हुए अपार ।। भाई, संसार में यदि देखा जाय तो बाप और बेटे का सम्बन्ध सबसे बड़ा है । परन्तु लोभ के वशीभूत होकर बेटा बाप को मार देता है और बाप वेटे को मार देता है। पति अपनी पत्नी को और पत्नी अपने पति को मार देती है। इस प्रकार संसार में इस परिग्रह के कारण आज तक अपार अनर्थ
और भी देखो-प्रातः काल चार बजे से लेकर रात्रि के १० बजे तक एक नौकर जो मालिक की अनेक प्रकार की बाते सुनता हैं, गालियों को सहन करता है, उसके साथ देश-विदेश में जाता है और नाना प्रकार के संकटों को उठाता है, वह सब लोभ के पीछे ही तो है । यह भौतिक मकान तो लोहे-पापाण के थंभों के माधार पर ठहरता है। परन्तु लोभ का महल विना थंभों के अधर ही आकाश में निर्मित होता है । मनुप्य आकाश का पार, भले ही पा लेवे, परन्तु लोभ के पार को कोई नहीं पा सकता है। अन्याय, छल, छिद्र, कपट और धोखा आदि यह सब कुछ लोभ ही कराता है ।
किन्तु जिसने अपने आत्मा के पद को पहिचान लिया कि मैं तो सत्-चिदआनन्दमय है, वह फिर इन भौतिक पर पदार्थो का अभिमान नहीं करता है । वह सोचता है कि मेरा पद तो सर्वोपरि है, उसके सामने संसार के वड़े से बड़े भौतिक पद भी तुच्छ हैं—नगण्य हैं, ऐसा समन्न कर वह किसी भी सांसा, रिक वस्तु का अभिमान नहीं करता है । यहाँ तक कि वह फिर अपनी जाति का, कुल का, विद्या का, बल का और शरीर-सौंदर्य आदि का भी अभिमान नहीं करता है।
। स्वभाव क्यों छोड़ें? एक बार एक भाई एक महात्मा के पास पहुंचा और उसने पूछा - महाराज, मुझे दुःख क्यों होता है, भय क्यों लगता है और नाना प्रकार की चिन्ताएं क्यों सताती है ? इसका क्या कारण है ? कोई ऐसा उपाय बतलाइये कि जिससे में इन सबसे विमुक्त हो जाऊँ ? और मेरी आत्मा में शान्ति आ जाय ? महात्मा ने कहा- देख, मैं एक उपाय बतलाता हूं। यदि तू उस पर अमल करेगा, तो अवश्य शान्ति को प्राप्त होगा। वह उपाय यह है कि "जो हूं, तो मैं हूं, और मेरे से बढ़कर मंसार में और कोई नहीं है। जैसा में काम कर सकता हूं, वैसा दूसरा कोई नहीं कर सकता । बस यह विचार मन में ले । फिर तुझे कोई चिन्ता नही सतावेगी।" उमने महात्माजी की यह बात अपने