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था। वर्द्धमान के ऊषाकालीन अनुराग से रंजित दिनकर के समान दिव्य-सौन्दर्य के दर्शन के लिए आज भोर से ही धरती और आकाश संभी अपने वैभव के साथ वैशाली में उत्कंठित हो रहे थे। प्रकृति एक अद्वितीय पुलकन को भर रही थी। सभी ओर देव-दुन्दुभियाँ गुंजायमान हो रही थीं। अन्तरिक्ष में देव-देवांगनाओं की समकोण पंक्तियाँ दिव्य वाद्यों के मध्य जय-जयकार के साथ पुष्प-वृष्टि करती हुईं तुमुलनाद कर रही थीं। कहीं नृत्य-गान हो रहा था, तो कहीं अनन्त-रंगों की विभा चित्त को चमत्कृत करती हुई विभिन्न-रूपों में भास्वरित हो रही थी। ____ क्षत्रिय-कुण्डपुर' का 'नन्द्यावर्त' प्रासाद चारों ओर से सुवासित-पुष्पों से आवृत्त एक नई शोभा को धारण कर रहा था। प्रासाद की अमल धवलता अपने अन्तहीन-नयनों से झाँक रही थी। अनन्त-विराट की नीलिमा के आर-पार सौधर्म इन्द्र का विशाल-परिकर तथा शत-सहस्र, सुर-असुर निकरों का समवाय उमड़ता हुआ चला आ रहा था। गगनभेदी- स्वर मुखरित होने लगे थे। निश्चेष्ट प्रकृति अपनी अलस-तन्द्रा को भंग कर अंगड़ाई लेने लगी थी। उसके विस्तीर्ण-आनन पर उल्लास की एक विकस्वर-आभा लक्षित होने लगी थी।
सौधर्मेन्द्र ऐरावत गजराज पर आसीन होकर हर्ष से उछलता हुआ वैशाली में अवतरण कर रहा था । गजराज किलकारी भरता हुआ महादेवी त्रिशला के प्रकोष्ठ पर प्रणिपात करता है। शची ने वातायन के पथ से कक्ष में प्रविष्ट हो माता को अवस्वापिनी-निद्रा में लीन कर ज्योतिर्मान-बालक को अपनी बाँहों में भरकर बाहर ले आयी है, मानो निद्रा के गर्भ में प्रसुप्त अनन्त-प्रकृति जागरण की किरणों को प्रकट कर दिग्दिगन्तों में व्याप्त कर रही हो । शची का अंग-अंग अपूर्व-पुलकन से रोमांचित हो जाता है। इन्द्र भी नतमस्तक हो उमंग से भर कर उस ज्योतिपुञ्ज को अपने अंक में भर लेता है। इन्द्र किसी आनन्द के पारावार में निमज्जित हो जाता है। अपने सहस्र-नयनों से भी वह उस त्रिलोकव्यापिनी दिव्य-आभा को नहीं बाँध पाता है। सुर, शक्रेन्द्र उसे ज्यों-ज्यों निहारते जाते हैं, त्यों-त्यों लावण्य की गतिशीलता प्रतिसमय चमत्कार उत्पन्न करती जाती है। उस समय अनन्त-प्रकृति भी उसे निहारती ही रह जाती है। सभी के नयन अतृप्त रूप-निधि के सागर में तिरते रह जाते हैं।
सुवासित मन्द-समीर के प्रवाह से वातावरण में एक नवीन-चेतना का प्रसार होने लगता है। सौधर्मेन्द्र गजराज पर आरूढ हो शिशु को अपने अंत में विराजित कर सुरगिरि के लिए प्रस्थान करता है। एक विशाल उत्सव-यात्रा आरम्भ हो जाती है। गगन-पटलों से मंगल निनाद मुखरित होने लगता है। चारों ओर मंगल-गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। विपुल वाद्य-निर्घोष और मंगल-रवों से संकुल आकाश-मार्ग प्रतिध्वनित हो उत्कण्ठित जान पड़ता है। ईशानेन्द्र विभु पर श्वेत आतपत्र की भाँति छत्र ताने हुए गर्व का अनुभव करते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र अत्यन्त उज्ज्वल चँवर अपनी विस्तृत कर-शाखाओं में सम्हाले हुए
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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