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अब हम पुनः मध्य एवं उत्तर भारत में जैनधर्म के प्रसार की स्थिति पर विचार करेंगे । ऐसी अनुश्रुति है कि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग 'उज्जैन' में सुप्रसिद्ध विक्रमादित्य का उदय हुआ था, जिसे प्रसिद्ध जैनाचार्य सिद्धसेन ने जैनधर्म में दीक्षित किया था । प्रसिद्ध कालकाचार्य कथानक से विदित होता है कि किस प्रकार उक्त आचार्य ने पश्चिम और मध्य-भारत में शकराज का प्रवेश कराया था । इसप्रकार यह प्रतीत होता है कि मध्य भारत और दक्षिणापथ में, जहाँ जैन धर्म का प्रथम सम्पर्क सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुआ था, जैनधर्म की प्रवृत्ति किन्हीं अंशों में बनी रही । इसका समर्थन हाल ही में पूना जिले में प्राप्त ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के एक जैन गुफा - शिलालेख से होता है ।
उत्तर-भारत में ‘मथुरा' जैनधर्म का महान् केन्द्र था । जैनस्तूप के अवशेष तथा हाल में ही प्राप्त शिलालेख, जिनमें से कुछ ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी तक के हैं, मथुरा क्षेत्र में जैनधर्म की सम्पन्न- स्थिति की सूचना देते हैं | मथुरा- स्थित 'कंकाली' टीले के उत्खनन से ईंट-निर्मित स्तूप के अवशेष, तीर्थंकरों की प्रतिमायें, उनके जीवन की घटनाओं के अंकन से युक्त मूर्तिखण्ड, आयागपट, तोरण तथा वेदिका - स्तम्भ आदि प्रकाश में आये हैं, जो अधिकांशतः कुषाणकालीन हैं । 'व्यवहारभाष्य' (5,27) के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि मथुरा में एक रत्नजटित स्तूप था, तथा मथुरानिवासी जैनधर्म के अनुयायी थे और वे तीर्थंकर-प्रतिमाओं की पूजा करते थे 1
मथुरा से प्राप्त ये साक्ष्य जैनधर्म के विकास के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। अनेकानेक शिलालेख यह तथ्य प्रकट करते हैं कि तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्नवर्ग के व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या में जैनधर्मानुयायी थे, क्योंकि दान देनेवालों में कोषाध्यक्ष, गन्धी, धातुकर्मी (लुहार, ठठेरे आदि), गोष्ठियों के सदस्य, ग्राम - प्रमुख, सार्थवाहों की पत्नियाँ, व्यापारी, नर्तकों की पत्नियाँ, स्वर्णकार तथा गणिका जैसे वर्गों के व्यक्ति सम्मिलित थे । इन शिलालेखों में विभिन्न गणों, कुलों, शाखाओं तथा सम्भागों का भी उल्लेख है, जिनसे ज्ञात होता है कि जैनसंघ सुगठित एवं सुव्यवस्थित था । तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाओं की प्राप्ति से यह भी सिद्ध होता है कि इस काल तक मूर्तिपूजा पूर्णरूपेण स्थापित एवं प्रचलित हो चुकी थी।
ईसा सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में सौराष्ट्र में जैनधर्म की प्रवृत्ति का अनुमान, कुछ विद्वानों के अनुसार 'जूनागढ़' के निकट 'बाबा- प्यारा मठ' में पाये गये जैन प्रतीकों से लगाया जा सकता है; किन्तु यह साक्ष्य पूर्णतया विश्वासप्रद नहीं है । क्षत्रप - शासक जयदामन के पौत्र के जूनागढ़वाले शिलालेख में 'केवलज्ञान' शब्द का प्रयोग हुआ है, जो वस्तुत: एक जैन - पारिभाषिक शब्द है । इससे विदित होता है कि काठियावाड़ में जैनधर्म का अस्तित्व कम से कम ईसा सन् की प्राथमिक शताब्दियों से रहा है। प्रोफेसर सांकलिया ने इस समबन्ध में वर्तमान राजकोट जिलान्तर्गत गोंडल से प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाओं का उल्लेख किया है; जिनका समय वह सन् 300 के लगभग निर्धारित करते हैं । इससे आगे की शताब्दियों में गुजरात में
प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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