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के प्रभाववश जैनों के कुछ लोगों ने यह पद्धति अपना ली होगी। ___जैन-संस्कृति में आरती या नीराजन के पात्र की आकृति-विशेष प्राप्त होती है। तदनुसार पात्र की आकृति पानी में चलनेवाली नाव के समान होती है, जो कि कुछ-कुछ अर्ध-चन्द्राकार-जैसी होती है। इस पर पालवाली नाव के समान ही ऐसी आकृति बनी होती
इसमें ऊपर बने चार चार खानों का भी अभिप्राय-विशेष बताया गया है। तदनुसार जिनेन्द्रभक्ति-पूजन का प्रशस्त-परिणाम परम्परया मोक्ष का कारण है अत: नाव की आकृति भवसागर से पार होने की सूचक है तथा चार खाने चार घातिया कर्मों या चतुर्गति-संसारपरिभ्रमण से मुक्त होने के प्रतीक हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि भारतीय-संस्कृति की दोनों प्रमुखधाराओं श्रमण (जैन)परम्परा एवं वैदिक-परम्परा – में 'नीराजन' या 'नीराजना' की विधि प्राप्त होती है। जैन- परम्परा के 'पुरुदेव-स्तवन' में भी 'नीराजन' शब्द का प्रयोग मिलता है—
____ "नीराजनाकार-रागहरते ! पुरुदेव ते !!" इसके अनुसार पुरुदेव (आदिनाथ-वृषभदेव) का नीराजन राग-द्वेष के विकारी-परिणामों को दूर करके वीतरागी' बनने का संकेत करता है। भक्ति के प्रकर्ष में यहाँ यह कहा गया है कि हे पुरुदेव ! आप नीराजन करनेवाले का राग दूर कर देते हैं या आपकी नीराजना करने से उसका राग दूर हो जाता है। इन्द्र भी 'नीराजन' करता है— इसका उल्लेख जैन-परम्परा में है "नीराजन करता ले दीप" ।
यह इस दिशा में लेखन का मेरा प्रथम प्रयास है; किन्तु एतद्विषयक-अध्ययन से यह बोध मुझे अवश्य हो गया कि यदि कोई गम्भीरतापूर्वक अनुसन्धान करे, तो इस विषय पर एक शोधप्रबन्ध अवश्य निर्मित हो सकता है। सन्दर्भग्रन्थ-सूची 1. द्रष्टव्य, हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 2. शब्दकल्पद्रुम, भाग 2, पृष्ठ 912।। 3. हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 4. आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश, पृष्ठ 5511 5. हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 6. द्रष्टव्य, वही। 7. द्रष्टव्य, वही। 8. द्रष्टव्य, वही। 9. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पृष्ठ 111 ।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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