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सामान्य
- परिचय
आत्मा के तत्त्वज्ञान को अथवा यथार्थ - दर्शन के प्रतिपादक शास्त्र को 'सांख्य' कहते हैं । इनको ही प्रधानता देने के कारण इस मत का नाम 'सांख्य' है । अथवा 25 तत्त्वों का वर्णन करने के कारण 'सांख्य' कहा जाता है ।
सांख्य-दर्शन मूलत: निरीश्वरवादी दर्शन रहा है । परवर्तीकाल में सांख्य के कुछ आचार्य. ईश्वर की सत्ता मानने लगे थे, अत: 'सेश्वर - सांख्य' का वर्ग भी सांख्य दर्शन में जाना जाने लगा। ‘सांख्य-सूत्र' के प्रणेता ईश्वर के अभाव के बारे में लिखते हैंईश्वरासिद्धेः – (सांख्यसूत्र, 1/ 93 )
अर्थात् ईश्वर की सत्ता किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती ।
प्रवर्तक - साहित्य व समय
(1) इसके मूल-प्रणेता महर्षि कपिल थे, जिन्हें 'क्षत्रियपुत्र' बताया जाता है और उपनिषदों आदि में जिन्हें 'अवतार' माना गया है। इनकी कृतियाँ हैं— सांख्यप्रवचनसूत्र, तथा तत्त्वसमास । इनका समय भगवान् वीर व महात्मा बुद्ध से पूर्व माना गया है । (2) कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि ई.पू. 600 हुए। (3) आसुरि के शिष्य पंचशिख थे । इन्होंने इस मत का बहुत विस्तार किया, कृतियाँ — तत्त्वसमास पर व्याख्या, समय — गार्वे के अनुसार ईसा की प्रथम शती । (4) वार्धगण्य भी इसी गुरु-परम्परा में हुए, समय ई. 230-300 । वार्षगण्य शिष्य विन्ध्यवासी थे, जिनका असली नाम रुद्रिल था, समय - ई. 250-320 (5) ईश्वर कृष्ण बड़े प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं, कृतियाँ - पष्टितन्त्र के आधार पर रचित 'सांख्यकारिका' या ‘सांख्यसप्तति’ । समय — एक मान्यता के अनुसार ई. श. 2 तथा दूसरी मान्यता से ई. 340380 । (6) 'सांख्यकारिका' पर माठर और गौड़पाद ने टीकायें लिखी हैं । (7) वाचस्पति मिश्र (ई. 840) ने न्याय - - वैशेषिक दर्शनों की तरह 'सांख्यकारिका' पर 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' और व्यासभाष्य पर 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीकायें लिखीं। (8) विज्ञानभिक्षु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्होंने पूर्व के विस्मृत ईश्वरवाद का पुन: उद्धार किया । कृतियाँ - सांख्यसूत्रों पर ‘सांख्य-प्रवचन-भाष्य' तथा 'सांख्यसार', 'पातञ्जलभाष्य - वार्तिक', 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर 'विज्ञानामृत-भाष्य' आदि ग्रन्थों की रचना की । ( 9 ) इनके अतिरिक्त भी— भार्गव, वाल्मीकि, हारीति, देवल, सनक, नन्द, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा आदि सांख्य- विचारक हुये । तत्त्व-विचार
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1. मूल - पदार्थ दो हैं – पुरुष व प्रकृति । 2. पुरुष चेतन तत्त्व है । वह एक निष्क्रिय, निर्गुण, निर्लिप्त, सूक्ष्म व इन्द्रियातीत है । 3. प्रकृति जड़ है । वह दो प्रकार की है— 'परा' व ‘अपरा’। परा-प्रकृति को 'प्रधान', 'मूला' या 'अव्यक्त' तथा अपरा - प्रकृति को 'व्यक्त’ कहते हैं। अव्यक्त-प्रकृति जिन गुणों की साम्यावस्था - स्वरूप है, तथा वह एक है । व्यक्तप्रकृति अनित्य, अव्यापक, क्रियाशील तथा सगुण है । यह सूक्ष्म से स्थूल - पर्यन्त क्रम से 23 भेद-रूप
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प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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