Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 172
________________ हर्ष व्यक्त किया । कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली ने इस सम्मान को स्वयं अपना तथा प्राकृत एवं जैनविद्या का सम्मान माना। प्राकृत-जगत् ने इसे दुर्लभ प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सम्मान माना। सम्मान-प्राप्ति हेतु मेरे तथा हमारी धर्मपत्नी के दिल्ली पहुँचने पर श्री कुन्दकुन्द भारती ने हवाई अड्डे पर अपने प्रतिनिधियों - डॉ. सुदीप जैन, डॉ. वीरसागर जैन आदि को भेजकर वहीं पर हमारे स्वागत की व्यवस्था की। मेरे अनेक मित्रों ने इसे समग्र जैनसमाज का सम्मान माना और मैंने स्वयं इसे अपनी जन्मभूमि मालऑन (सागर) तथा कर्मभूमि आरा (बिहार), दिल्ली, तथा श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी और जैन सन्देश (मथुरा) का सम्मान माना। ___ यह मेरा महान् सौभाग्य है कि राष्ट्रसंत परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने मेरे सिर एवं पीठ पर पिच्छी का स्पर्श कराकर मुझे आगे भी विवादग्रस्त झंझटों से दूर रहकर प्राकृत एवं जैनविद्या तथा दुर्लभ अप्रकाशित जैन पाण्डुलिपियों पर एकाग्र मन से पूर्ववत् ही शोध-सम्पादन-कार्य करते रहने का शुभाशीर्वाद दिया और डॉ. ए.एन. उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जी के मार्ग पर चलते रहने का मंगल-आशीर्वाद दिया। पुरस्कार ग्रहण करते समय मैं अपनी उन शिक्षा संस्थाओं - पपौरा (टीकमगढ़) गुरुकुल, स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वहाँ के अपने गुरुजनों का भी स्मरण करता रहा, जिनके द्वारा प्रदत्त-संस्कारों से मैं कुछ बन सका। मुझे अपने बचपन के वे दिन भी याद आते रहे, जब मेरी माता जी प्रात:काल में ही मुझे नहलाकर तथा स्वयं राजस्थानी-पोशाक धारण कर मुझे जिन-मन्दिर ले जाती थीं और देवदर्शन कर किसी हस्तलिखित-पोथी का मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय करती थीं और मैं कभी उनकी श्रद्धाभरित एकाग्र मुखमुद्रा देखता रहता और कभी हस्तलिखित-ग्रन्थ का वह पत्र, जिसका कि वे स्वाध्याय किया करती थीं। उनके द्वारा प्रदत्त वही प्रच्छन्न-संस्कार मुखर हुआ सन् 1956 में, जब डॉ. उपाध्ये जी एवं डॉ. हीरालाल जी के आदेश से मैंने महाकवि रइधू, विबुध श्रीधर, महाकवि सिंह तथा महाकवि पदम आदि की दुर्लभ हस्तलिखित प्राचीन-पाण्डुलिपियों की खोज एवं उनके अध्ययन एवं सम्पादन का दृढव्रत लिया। यह कार्य मुझे ऐसा रुचिकर लगा कि प्रतिदिन कॉलेज-सर्विस के साथ-साथ प्रतिदिन 14-14, 15-15 घण्टे कार्य करके भी थकावट का अनुभव नहीं करता था। वर्तमान में भी मेरा ऐसा ही अनथक-अभ्यास चल रहा है। उच्चकोटि के पुरस्कारों का अपना भौतिक-महत्त्व तो है ही, किन्तु उनका मनोवैज्ञानिक महत्त्व उससे भी अधिक है। वह स्वस्थ दीर्घायुष्यकारी होता है; क्योंकि उससे बुद्धिजीवियों को विनम्रता के साथ-साथ नई ऊर्जा-शक्ति मिलती है, नया उत्साह एवं विविध प्रेरणायें मिलती हैं, विशेष उत्तरदायित्वों के निर्वाह की भावना भी प्रबल होती है और यह भी अनुभव होने लगता है कि वृद्धावस्था की गणना उलटी अर्थात् युवावस्था की ओर चलने लगी है और 00 170 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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