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प्रकाश जैन की कहानी देवताओं की चिता' रुचिकर है तथा डॉ. प्रचंडिया का आध्यात्मिक गीत प्रेरणास्पद है। डॉ. सूर्यकान्त बाली के लेख में भगवान् ऋषभदेव तथा उनके ज्येष्ठ-पुत्र भरत का उल्लेख भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख करता है, जहाँ विचार भिन्न होते हुए भी मनोमालिन्य नहीं मिलता। यही कारण है भागवत् में ऋषभदेव की स्मृति सुरक्षित है। केरली-संस्कृति में जैन-योगदान एक विस्तृत शोधलेख है, जिसमें दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के बारे में रोचक जानकारी मिलती है। सबसे महत्त्वपूर्ण है आपका संपादकीय ध्वज से दिशाबोध' 'ध्वज' शब्द के विभिन्न अर्थ, प्रतीकात्मकता एवं विभिन्न वर्णी की व्याख्यायें ज्ञानवर्धन करती है। जैनधर्म की पंचवर्णी ध्वजा उसके मध्य स्वस्तिक तथा बीच में चार बिंदु तथा चार तिरछे लघुदण्ड के अनुसार ध्वज के बीच 'स्वस्तिक' का रूप कुछ स्पष्ट नहीं रहा है।
परन्तु मुखपृष्ठ पर जो 'स्वस्तिक' है, ध्वजा में वह इस रूप में नहीं है। कारण बता सकें, तो ज़रूर बताइए। जो भी है आपका संपादकीय भी सूचनापरक है, तथा हमारे प्राचीन प्रतीकों की वैज्ञानिकता सिद्ध करता है। -डॉ. (श्रीमती) प्रवेश सक्सेना, नई दिल्ली**
0 'प्राकृतविद्या' का अंक 3 मिला। पूरी पत्रिका ही सारगर्भित एवं संग्रहणीय होती है। यह प्राकृत-प्रेमियों का कण्ठहार बनती जा रही है। आपका, डॉ. बाली, राजमल जैन जी के लेख संग्रहणीय हैं।
-प्रणव शास्त्री, बदायूँ (उ.प्र.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का वर्ष 13, अंक 3 प्राप्त हुआ, जिसका आभारी हूँ। पत्रिका मनोहर और ज्ञानवर्धक-सामग्री से परिपूर्ण है। धर्म और प्राचीन भाषा साहित्य-विषयक जो सामग्री इसमें सुलभ है, उससे जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा शांत होती है। मैं इस पत्रिका के अनवरत प्रकाशन की सत्कामना करता हूँ।
–डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, उज्जैन (म.प्र.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2001 का अंक प्राप्त हुआ, धन्यवाद । शौरसेनी, प्राकृत एवं सांस्कृतिक-मूल्यों की प्रद्योतित करने के लिए यह पत्रिका नितान्त उपयोगी तो है ही, सर्वोपरि भी है। मनोहारी-आवरण जैनशासन के मांगलिक-प्रतीक पंचरंगी ध्वज और इसे विश्लेषित करनेवाले महत्त्वपूर्ण सम्पादकीय-आलेख के लिए पत्रिका के यशस्वी सम्पादक डॉ. सुदीप जी को अनेक बधाइयाँ । आपने साधु-संस्था, इतिहास, आगम, भाषाशास्त्र, संस्कृति और सम-सामयिक घटनाचक्र पर पुष्कल प्रामाणिक-सामग्री इस अंक में प्रकाशित कर अध्येताओं और अनुसन्धित्सुओं को सौविध्य सुलभ कराया है। ___ दार्शनिक-राजा की परम्परा के प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभनाथ' और 'मनीषीप्रवर टोडरमल : प्रमुख शौरसेनी जैनागमों के प्रथम हिन्दी टीकाकार' आलेख सभी मनीषियों शोध-खोज में निरत विद्वानों को प्रभूत सामग्री के साथ जिनशासन के रहस्य उद्घाटित करते हैं। इस भव्य और प्रभावोत्पादक शोधपत्रिका के प्रकाशन तथा सम्पादन के लिए प्रकाशन
प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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