Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 185
________________ भूल सुधार 'प्राकृतविद्या' के पिछले अंक के सम्पादकीय में मुद्रण-सम्बन्धी त्रुटि के कारण कुछ चिह्न आदि मुद्रित होने से रह गये थे, जिसके सम्बन्ध में प्रबुद्ध-पाठकों ने अपने पत्रों के माध्यम से हमारा ध्यानाकर्षण कराया । यद्यपि पत्रिका छपकर आते यह विसंगति हमारी दृष्टि में आ गयी थी, फिर भी हम अपने सभी प्रबुद्ध - पाठकों का आभार व्यक्त करते हैं, और सम्पादकीय लेख का वह अंश, जिसमें मुद्रण-सम्बन्धी त्रुटि रह गयी थी, उसका निर्दोषरूप यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । सुधी पाठकों से अनुरोध है कि कृपया इस संशोधन को पिछले अंक में सुधार कर उसे पूर्णता प्रदान करें । -सम्पादक 'स्वस्तिक' के निर्माण की विधि अत्यन्त वैज्ञानिक है। इसमें सर्वप्रथम नीचे से ऊपर की ओर एक खड़ी रेखा ( 1 ) बनाते हैं, जो 'उत्पत्ति' या 'जन्म' की सूचिका है। इसके बाद इसी को काटती हुई बाँये से दाँयी ओर आड़ी रेखा ( - ) बनाते हैं, जो लेटी हुई अवस्था के समान 'मृत्यु' की प्रतीक है। इन रेखाओं का एक-दूसरे को बाधित करने (+) का अभिप्राय यही है, कि जीव स्वयं ही स्वयं का बाधक है, अन्य द्रव्य उसका भला-बुरा नहीं करता है। अपने अज्ञान के कारण ही जीव जन्म-मरण कर रहा है। इन | जन्म-मरण के चक्र में वह चार गतियों में परिभ्रमण करता है. - यह सूचित करने के लिए (+) चिह्न के चारों सिरों पर चारों दिशाओं में अनुक्रम (क्लॉक वाइज़) जानेवाली छोटी रेखायें या दण्ड बनाते हैं ( 5 ), जो जन्म-मरण से चतुर्गति-परिभ्रमण को ज्ञापित करती हैं। फिर इन चारों दण्डों के किनारे तिरछे लघुदण्ड इसप्रकार बनाते हैं (5), जो कि चतुर्गति-परिभ्रमण से बाहर निकलने के पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।' बीच के चार बिन्दु इसप्रकार हम रखते हैं ( ) । ये चार बिन्दु नहीं हैं, अपितु चार कूट- अंक हैं, जो कि क्रमश: 3, 24, 5, 4 के रूप में लिखे जाते हैं । इनका सूचक प्राकृत प्रमाण निम्नानुसार है“ रयणत्तयं च वंदे, चउवीसं जिणं च सदा वंदे । पंचगुरूणं वंदे, चारणचरणं सदा वदे ।। " - ( इति समाधिभक्ति: 10, पृष्ठ 114 ) अर्थात् 3 का अंक रत्नत्रय, 24 का अंक चौबीस तीर्थंकरों का, 5 का अंक पंचपरमेष्ठी का एवं 4 का अंक चार- अनुयोगमयी जिनवाणी का सूचक है। इनकी भक्ति, वंदना, सान्निध्य एवं आश्रय से जीव क्रमश: द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म इन तीन कर्मों से मुक्त होकर सिद्धशिला पर सिद्ध परमात्मा के रूप में विराजमान हो जाता है; इस तथ्य को सूचित करने के लिए स्वस्तिक के ऊपर तीन बिन्दु, अर्धचन्द्र - आकृति एवं मध्यबिन्दु इसप्रकार बनाया जाता है । इसप्रकार चतुर्गति-परिभ्रमण - निवारण की प्रतीक यह | मंगलाकृति आत्मस्वरूप में स्थिरता की सूचिका है। इनसे अलंकृत होकर जैनों की पंचवर्णी ध्वजा 'महाध्वजा' कहलाती है । प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक For Private & Personal Use Only Jain Education International ☐☐ 183 www.jainelibrary.org

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