Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 208
________________ में प्रकाशित 'सम्पादकीय', के अतिरिक्त 'भारतीय आस्था के स्वर जन-गण-मन' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है । स्थायी पता — बी-32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली- 110030 24. श्रीमती रंजना जैन--3 - आप श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ की प्राकृतभाषा विभाग की वरिष्ठ शोध - छात्रा हैं । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की जे. आर.एफ. नामक फैलोशिप भी आपको प्राप्त है। इस अंक में प्रकाशित 'सांख्य दर्शन परम्परा और प्रभाव' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है I स्थायी पता 1-बी -32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली- 110030 25. श्रीमती मंजूषा सेठी - आप प्राकृतभाषा एवं साहित्य की अच्छी विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'महावीर की अचेलक परम्परा' लेख आपके द्वारा लिखित है । स्थायी पता -- सी - 9 /9045, वसंतकुंज, नई दिल्ली-110070 26. प्रभात कुमार दास -- आप प्राकृतभाषा एवं साहित्य के शोधछात्र हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'नीराजन : स्वरूप एवं परम्परा' लेख आपके द्वारा लिखित है । पत्राचार पता—शोधछात्र प्राकृतभाषा विभाग, श्री ला. ब. शा. रा. संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-16 27. अजय कुमार झा – आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत - विभाग में शोध - छात्र के रूप शोध-कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर के अहिंसक दर्शन में करुणा' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है । 'जैन' संज्ञा “ आर्षं मार्गं, सास्य देवता, जिनो देवता अस्य इति जैन: । जिनं वेत्तीति जैन इत्यादि । । ” – ( कातन्त्र-व्याकरण, तद्धित, 496 पृ. 99 ) अर्थ आर्ष-परम्परा के मार्ग को, उनके देवता को ('जिन' कहते हैं ।) तथा 'जिन' हैं देवता जिसके, अर्थात् जिनके अनुयायी 'जैन' कहलाते हैं । 'जिन' को जो जानते हैं, उन्हें भी 'जैन' कहते हैं । 'कर्मारातीन् जयन्तीति जिना: तस्यानुयायिनो जैना: । ' - ( पञ्चसंग्रह, पृ. 589 ) अर्थ • जो कर्मरूपी शत्रुओं को जीतते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं । तथा अनुयायियों को 'जैन' कहते हैं I 'दुर्जय दुर्घट कर्मारातीन् जयन्तीति जिना: । तस्यानुयायिनो जैना: । ।' - ( प्रथमगुच्छ, प्रस्तावना, पृ. 2) • जो दुर्जय एवं दुर्घट कर्मरूपी शत्रुओं को जीतते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं। तथा अनुयायियों को 'जैन' कहते हैं । अर्थ 206 : Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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