Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust
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अभिमत
© 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक प्राप्त हुआ था, अंक सभी दृष्टि से अच्छा, सुन्दर और पठनीय सामग्री से पूर्ण है। अंक का आवरण-पृष्ठ ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक —दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, और चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल वास्तव में महत्त्वपूर्ण रहा है, विशेषकर कौटिल्य की उपस्थिति के कारण। सरकार का प्रयास तो सराहनीय है ही कि वह यदा-कदा कुछ अच्छा कर दिखाती है, जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य पर डाक-टिकिट निकालने का कार्य। परन्तु आप जैसे सम्पादक जनसाधारण के लिए उसका महत्त्व किस तरह आंककर संकेत करते हैं, यह वास्तव में एक गंभीर-सोच का परिणाम है।
- अंक में श्रवणबेल्गोल, सम्मेदशिखर, विदिशा के जैन-मंदिरों-संबंधी विवरण यत्र-तत्र दिखता है। सम्पादकीय सदैव कुछ न कुछ नवीनता लिए होती है, और इस अंक में भी आदिग्रंथ 'छक्खंडागमसुत्त' के मंगलाचरण-अंश का विवरण प्रस्तुत कर परम्परा का निर्वाह हुआ है। 'समयपाहुड'-संबंधी लेख प्रमाणों के आधार पर अच्छा तन पड़ा है, लेखक की विद्वत्ता पर गर्व किया जाना चाहिये।
'दक्षिणभारत में सम्राट चन्द्रगुप्त से पूर्व भी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार था' आलेख में कौशलपूर्वक रखी गई दृष्टि ध्यान आकृष्ट करती है। डॉ. उदयचन्द्र जैन की 'छक्खंडागमसुत्त' पर लेख सम्पादकीय के साथ निश्चय ही ज्ञानवृद्धि में सहायक है। 'आत्मजयी महावीर एवं ऋषभदेव की देन' आलेख भी संक्षिप्त होने पर भी अच्छी जानकारी देते हैं। मांसाहार : एक समीक्षा', एक खोजपूर्ण आलेख है। बहुत कुछ सीखने, सोचने और समझने की आवश्यकता महसूस होती है। शाकाहारी के प्रति ब्रिटेन की बीमा कम्पनी का रुख बड़ा विचित्र व सत्यता को लिए है। मैंने राजस्व-अधिकारी के नाते दोनों स्वादों को चखा है और यह सत्यता के साथ कहता हूँ, मुझे 'मांसाहारी' होना कभी अच्छा नहीं लगा। शाकाहारी में जो मजा, स्वाद
और आत्मिक-बल है, वह मांसाहारी में नहीं। इसीलिए कुछ समय में ही मांसभक्षण की स्थिति को त्यागना पड़ा। आत्मा ने स्वीकार नहीं किया। ___ 'शब्दस्वरूप एवं ध्वनि-विज्ञान' तथा 'श्रमणों के मूलगुण' आलेख भी शोधपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक है। अंक की अन्य सामग्री भी अच्छी है। जहाँ पुस्तक-समीक्षा पुस्तकें देखने की
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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