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को हटाकर उसकी जगह अर्धमागधी से संबंधित जानकारी जोड़ी गयी है। क्या ही अच्छा होता कि प्रथम-संस्करण के उस अध्याय को हटाये बिना यह सामग्री और जोड़कर इसे संवर्धित किया जाता।
इस पुस्तक में महाराष्ट्री प्राकृत को आधार रखकर शेष प्राकृतों के विशेष-नियमों का परिचय दिया गया है तथा ध्वनि-परिवर्तन, रूप-परिवर्तन आदि को छात्रोपयोगी ढंग से समझाया गया है। प्राचीन वैयाकरणों व भाषाविदों ने जिस अर्धमागधी प्राकृत की विशेषताओं का कहीं भी वर्गीकृत परिचय नहीं दिया है, उसकी पूर्ति का प्रयास इसके परिशिष्ट' में किया गया है। ___ कतिपय प्रूफ के संशोधन छूट जाने से विद्यार्थियों में भ्रम की स्थिति बन सकती है यथा-'अपभ्रंश 'ह'कारबहुल भाषा मानी जाती है।' यहाँ वस्तुत: अपभ्रंश के उकारबहुल होने का लेखक संकेतित करना चाहता है। फिर भी पुस्तक अवश्य पठनीय एवं विचारणीय
-सम्पादक **
पुस्तक का नाम : Indra in Jaina Iconography लेखक
: डॉ० नागराजय्या हम्पा प्रकाशक
: श्री सिद्धान्तकीर्त्ति ग्रन्थमाला, जैनमठ, हुम्बज-577436 (कर्नाटक) संस्करण
: प्रथम, 2002 ई० मूल्य
: 200/- (डिमाई साईज़, पेपरबैक, रंगीन चित्रों सहित, 112 पृष्ठ) जैन-परम्परा में इन्द्र-सम्बन्धी अवधारणा वैदिक-परम्परा के अवधारणा से कितनी भिन्न है, तथा उसका क्या महत्त्व है? —इसका अनुसंधानपूर्वक विवेचन प्रसिद्ध विद्वान डॉ. नागराजय्या हम्पा ने इस कृति में किया है। यद्यपि इसमें श्वेताम्बर-परम्परा के चित्रों एवं ग्रन्थों को ही अधिकतम आधार बनाया गया है। अत: इसका प्रस्तुतिकरण उतना अधिक सर्वांगीण नहीं हो पाया, जितना की सम्पूर्ण दिगम्बर जैन-पाण्डुलिपियों के अध्ययन, अनुसंधान एवं सामग्री-संकलन से इसका स्वरूप संतुलित और महत्त्वपूर्ण रहता।
फिर भी यह कृति अपने स्तरीय प्रकाशन के लिये प्रशंसनीय है । तथा अंग्रेजी भाषा के जिज्ञासुओं में इसको अधिक समादर प्राप्त होगा।
–सम्पादक **
(8) पुस्तक का नाम : अनेकान्त भवन ग्रन्थरत्नावली-3 सम्पादक : ब्र. संदीप सरल प्रकाशक : अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना, (सागर)-470113 (म.प्र.) संस्करण : प्रथम, 2001 ई०, (शास्त्राकार, पक्की जिल्द, लगभग 240 पृष्ठ) . दिगम्बर-जैनाचार्यों एवं मनीषियों ने जिन ग्रन्थों का प्रणयन अपनी सारस्वत-प्रतिभा
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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