Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 165
________________ भारतीय आस्था के स्वर 'जन-गण-मन..... . -डॉ. सुदीप जैन ___ आज देश के उच्चतम न्यायालय में जैनों को 'अल्पसंख्यक-दर्जा' देने का प्रकरण विचाराधीन है। जबकि संवैधानिक रूप से जैनों को हिन्दुओं से अलग जाति और धर्म-दर्शन के रूप में प्रारंभ से मान्यता मिली हुई है। भारत के राष्ट्रगान के पूरे मूलपाठ में भी जैनों को स्वतन्त्र-समुदाय के रूप में उल्लिखित किया गया है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत की रचना की थी तथा सन् 1911ई. में कलकत्ता में प्रथम बार उन्होंने इसका गायन किया था। इस गान के मूलपाठ को अविकलरूप से अभी बैठी उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ (ग्यारह सदस्यीय फुलबैंच) ने भी मनोयोगपूर्ण सुना और इसमें कथित जैनों के स्वतंत्र-समुदायरूप उल्लेख से पूर्णपीठ आश्वस्त प्रतीत हुई। इस गान के बारे में अनेकों प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं, अत: उनके निराकरणपूर्वक इस गान की तथ्यातमक रीति से आलेखरूप में प्रस्तुति 'प्राकृतविद्या' ने पहिले भी की थी, उसी आलेख को सामयिकता के अनुरूप यहाँ पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है। –सम्पादक भारत की स्वाधीनता के लिये राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जिस अद्भुत अहिंसक-क्रान्ति का सूत्रपात हो रहा था, और जिसके फलस्वरूप लगभग आधे विश्व में एकछत्र-शासन करनेवाले अंग्रेजों की सत्ता डाँवाडोल हो उठी थी; लगभग उसी समय राष्ट्रीय चेतना के स्वरों को मुखरित करने तथा अखंड भारत-गणराज्य की कल्पना को जन-जन के हृदय में भर देने के लिए कविवर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने सन् 1911 ई. में “जन-गण-मन.......” की रचना की थी। इसका सर्वप्रथम सार्वजनिक-प्रयोग समूहगान के रूप में 27 दिसम्बर 1911 ई. को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में किया गया था। ___ यह सत्य है कि उस समय आजादी के मतवालों का सर्वाधिक प्रिय-गीत वन्दे मातरम्' ही था, किन्तु विभिन्न राजतन्त्रों, क्षेत्रीयता एवं प्रांतीयता के खंडों में विभाजित इस महान् देश को इन संकुचित दायरों से मुक्त कर एक अखण्ड भारत-गणराज्य की कल्पना को कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने सूक्ष्मप्रज्ञा से इस गीत के माध्यम से साकाररूप दिया था। यही नहीं, उन्होंने विभिन्न धर्मो, सम्प्रदायों एवं जातियों की संकीर्ण मानसिकता से समस्त भारतवासियों को एक अखण्ड राष्ट्रीय-चेतना के सूत्र में पिरोने की प्रबल-कामना इस गीत में प्रस्तुत की थी। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि जब तक क्षेत्रवाद, जातिवाद, प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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