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यह द्वादशांग का चिन्तन है
-विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया
जीवन में जिनधर्म मुखर हो।
उपजे नित्य स्वभाव सुघर हो।। नहीं सतायें किसी जीव को, यह देव-शास्त्र-गुरु-वंदन है।
यह द्वादशांग का चिंतन है।। 1 ।।
संयम से समता जगती है।
समता से ममता नसती है।। और सफल हो सिद्ध-साधना, होता पूरन तभी नमन है।।
यह द्वादशांग का चिंतन है।। 2 ।।
जो है नहीं हमारा, छूटे।
त्याग-धर्म के अंकुर फूटे।। नर-भव तभी सार्थक होता, तप से मँजता अन्तर्मन है।।
यह द्वादशांग का चिंतन है।। 3 ।।
निर्मल मन ही धर्म हमारा।
अंतकाल में यही सहारा।। अपना दीपक स्वयं जले तब, आलोकित होता तन-मन है।
यह द्वादशांग का चिंतन है।। 4 ।। दर्शन-मोह मिटे जीवन से।
मिले मुक्ति भव-भव-भटकन से।। खुलते द्वार मोक्ष-धाम के, होय आखिरी जनम-मरन है।
यह द्वादशांग का चिंतन है।। 5 ।।
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक For Private & Personal Use Only
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