Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 162
________________ दृशमेकांतरूपं ये केचन परमागमोक्तं नयविभागमजानंत: समणा श्रमणाभासा: द्रव्यलिंगिन: प्ररूपयंति कथयति । तेसिं पयडी कुवदि अप्पाय अकारया सव्वे तेषां मतेनैकांतेन प्रकृति: की भवति। आत्मानश्च पुनरकारका: सर्वे । ततश्च कर्तृत्वाभावे कर्माभाव: कर्माभावे संसाराभाव: । ततो मोक्षप्रसंग: । स च प्रत्यक्षविरोध इति । जैनमते पुन: परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयद्वयेन सर्वं घटत इति नास्ति दोषः। एवं सांख्यमतसंवादं दर्शयित्वा जीवस्यैकांतेनाकर्तृत्वदूषणद्वारेण सूत्रपंचकं गतं ।। आचार्य सिद्धसेन इनके विषय में लिखते हैं 'जं काविलं दरीसणं एवं दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं । सुद्धोअण-तणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो।।24 अर्थ :- जो कापिल (सांख्य) दर्शन है, वह 'द्रव्यार्थिकनय' का वक्तव्य है। शुद्धोदन के पुत्र—बुद्ध का दर्शन तो परिशुद्ध पर्यायार्थिकनय' का विषय है। ___ 'समयसार' के व्याख्याकार आचार्य जयसेन ने एकान्त-अकर्तृत्व के सांख्य-सिद्धान्त की समीक्षा इसप्रकार प्रस्तुत की है 'तत: स्थितमेतत् । एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति । किं तर्हि रागादिविकल्परहितसमाधिलक्षणभेदज्ञानकाले कर्ता न भवति, शेषकाले कर्तेति ।25 अर्थ :- अत: यह सिद्ध हुआ कि आत्मा सांख्यमतानुसार एकान्तदृष्टि से (सर्वथा) अकर्ता नहीं है। अपितु रागादिविकल्पों से मुक्त समाधि-लक्षण भेदविज्ञान के समय वह कर्ता नहीं है, शेष सविकल्प, सराग-अवस्था में कर्ता होता है। 'समयसार' के अमृतभाष्य (आत्मख्याति-टीका) के प्रणेता महान् अध्यात्मवादी आचार्य अमृतचन्द्र सूरि इसी विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हता: । कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादयः ।। ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेव स्वयं । पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।26 अर्थ :---- सांख्यों के समान आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानना अहँत-मतावलम्बियों को उचित नहीं है। उन्हें सदा ही यह विचार रखना चाहिए कि भेदज्ञान से पूर्व आत्मा कथंचित्-कर्ता है। भेदज्ञान के पश्चात् तो उदग्रबोध का नियत-स्थान यह आत्मा स्पष्ट ही कर्मभावरहित, अचल और ज्ञातारूप में स्वयं प्रत्यक्ष-अनुभूति से अकर्ता दिखायी देने लगेगा। निरीश्वर-सांख्यभिमत जीव का स्वरूप समीक्षित करते हुए आचार्य वामदेव ने लिखा है- 'ज्ञाता दृष्टा पदार्थानां त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् । तस्याज्ञानस्वभावत्वं ब्रूते सांख्यो निरीश्वरः ।।27 अर्थ :- जो वीतराग सर्वज्ञ तीनों लोक मध्यवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञाता-दृष्टा हैं, 00 160 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220