Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 161
________________ नहीं की है। आद्य शंकराचार्य लिखते हैं 'न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया। ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्ष: सिद्धयति नान्यथा ।।" __ अर्थ :- मोक्ष न योग से सिद्ध होता है और न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से। वह केवल ब्रह्मात्मैक्य-बोध (ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान) से ही होता है, और किसी प्रकार नहीं। 'शारीरक-भाष्य' के प्रणेता इनकी समीपता आर्हतदर्शन से संकेतित करते हैं ‘एवमार्हतादीनि संति भूयास्यात्मानमधिकृत्य दर्शनानि प्रवृत्तानि । तेषु केषाञ्चित् युक्तिगाढतया सांख्यादीनां च शिष्टैरपि केनचिदंशेन परिगृहीततया। 20 ___ अर्थ :- इसप्रकार आहेत (जैन) दर्शन आदि बहुत से दर्शन हैं, जो आत्मा को लेकर प्रवृत्त हुए हैं। उनमें से कुछ सांख्य आदि का युक्ति की प्रगाढ़ता के कारण शिष्टजनों ने भी कुछ अंशों में परिग्रहण किया है। फिर भी वैदिक पद्मपुराण' के प्रणेता सांख्यदर्शन की निरर्थकता प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं 'दमेन हीनं न पुनन्ति यद्यप्यधीता सह षड्भिरंगैः । सांख्यं च योगश्च कुलं च जन्म-तीर्थाभिषेकश्च निरर्थकानि।।। अर्थ :- भले ही षडंग-सहित वेद पढ़ लिये जायें, किन्तु जिसने इन्द्रियों का दमन नहीं किया उसको वेद पवित्र नहीं कर सकते और उसके लिये सांख्य, योग, कुल, जाति और तीर्थ-अभिषेक आदि सब निरर्थक हैं। लगभग यही अभिप्राय भागवतकर्ता व्यक्त करते हैं 'किं वा योगेन सांख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि । किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः।।22 अर्थ :- इस लोक में योग से सांख्य से, सन्यास और वेदाध्ययनों तथा व्रतवैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनों से भी पुरुष को क्या लाभ है? । जैन-परम्परा में सांख्यदर्शन के बारे में अनेकत्र समीक्षायें मिलती हैं। न्यायपरक-ग्रन्थों में तो विस्तृत-समीक्षाओं की परम्परा है, अत: वह सामग्री यहाँ विस्तारभय से नहीं दे रही हूँ; किन्तु आध्यात्मिक आचार्यों ने अपने ग्रंथों में जो सांख्यदर्शन के विचारों की समीक्षा की है, वह अवश्य अंशत: यहाँ अवलोकनीय है। सर्वप्रथम मैं आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द-विरचित 'समयसार' के एतद्विषयक-कथन प्रस्तुत करना चाहती हूँ ‘एवं संखुवदेसं जे दु परूविंति एरिसं समणा। तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ।। टीका :- एवं संखुवदेसं जे दु परूविंति एरिसं समणा एवं पूर्वोक्तं सांख्योपदेशमी प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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