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हैं, संकल्प-विकल्प रूप भावमन मनतत्त्व है, पाँचों भावेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। व्यवहारनय से भेद करके देखा जाये, तो शरीर के अवयवभूत वाक्, पाणि, पाद आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी पृथक् तत्त्व हैं। शुद्ध निश्चयनय से ये सभी तत्त्व चिदाभास हैं, यही प्रकृति पर पुरुष का प्रतिबिम्ब है। यह तो चेतन-जगत् का विश्लेषण हुआ। जड़-जगत् की तरफ भी इसीप्रकार शुद्ध-कारण-परमाणु व्यक्त-प्रकृति है। शुद्ध-ऋजुसूत्र या पर्यायार्थिक-दृष्टि से भिन्न माने गये स्पर्श, रस आदि उस परमाणु के गुणों के स्वलक्षणभूत अविभाग-प्रतिच्छेद ही तन्मात्रायें हैं। 'नैगम' व 'व्यवहारनय' से अविभाग-प्रतिच्छेदों से युक्त परमाणु और परमाणुओं के बन्ध से पृथिवी आदि पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है। 'असद्भूत-व्यवहारनय' से द्रव्यकर्मरूप कार्मण-शरीर और 'अशुद्ध-निश्चयनय' औदारिक व क्षायोपशमिक-भावरूप कार्मण-शरीर ही जीव का सूक्ष्म-शरीर है, जिसके कारण उसके स्थूल-शरीर का निर्माण होता है और जिसके विनाश से उसका मोक्ष होता है। सृष्टि-मोक्ष की यही प्रक्रिया सांख्य-मत को मान्य है। शुद्ध-पारिणामिक-भावरूप पुरुष' व 'अव्यक्त प्रकृति' को ही तत्त्वरूप से देखते हुए अन्य सब भेदों की उसी में लय कर देना शुद्ध द्रव्यार्थिक-दृष्टि है। वही 'परमार्थ-ज्ञान' या विवेक-ख्याति' है। तथा वही एकमात्र साक्षात् मोक्ष का कारण है। इसप्रकार सांख्य व जैन तुल्य हैं। 3. परन्तु दूसरी ओर जैन तो उपरोक्त सर्व नयों के विरोधी भी नयों के विषयों को स्वीकार करते हुए अनेकान्तवादी हैं और सांख्य उन्हें न स्वीकार करते हुए एकान्तवादी हैं। यथा- संग्रहनय' से जो पुरुष व प्रकृति तत्त्व एक-एक व सर्व व्यापक हैं, वही 'व्यवहारनय' से अनेक व अव्यापक भी हैं। 'शुद्ध निश्चयनय' से जो पुरुष नित्य है, 'अशुद्ध निश्चयनय' से अनित्य भी है। 'शुद्ध निश्चयनय' से जो बुद्धि, अहंकार, मन व ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के विकार हैं, 'अशुद्ध-निश्चयनय' से वही जीव की स्वभावभूत-पर्यायें हैं, इत्यादि। इसप्रकार दोनों दर्शनों में भेद है।'
सांख्य' की उन्नत-भूमि में पदार्पण हो जाने पर जड़' तथा चेतन' —ऐसे दो तत्त्व ही शेष रह जाते हैं। धर्म धर्मी में भेद करने की इसे आवश्यकता नहीं रह जाती है। - जिस अद्वैत-शुद्धतत्त्व का परिचय देने के लिए वेद-कर्ताओं को पाँच या सात दर्शनों की स्थापना करनी पड़ी, उसी का परिचय देने के लिए जैनदर्शन नयों का आश्रय लेता है। तथा वैशेषिक व नैयायिक दर्शनों के स्थान पर 'असद्भूत' व 'सद्भूत' व्यवहारनय है। सांख्य व योगदर्शन के अनुसार स्थान पर 'शुद्ध' व 'अशुद्ध' द्रव्यार्थिकनय हैं।" जैनेतर दार्शनिक-ग्रन्थों में सांख्यदर्शन के बारे में निम्नानुसार उल्लेख प्राप्त होते हैं
'नास्ति सांख्य समं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम् ।
तावुभावेकचों तु उभावनिधनौ स्मृतौ ।।" सांख्यज्ञान और योगबल —दोनों की चर्या एक है। दोनों अनिधन-अमृतपद प्राप्त करानेवाले हैं : अत: सांख्य के समान ज्ञान नहीं है और योग के समान बल नहीं है।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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