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'नीराजन' : स्वरूप एवं परम्परा
--प्रभात कुमार दास
भक्ति की प्रक्रिया में भारतीय-परम्परा में अनेकविध-क्रियायें की जाती हैं। इनके औचित्य एवं वैशिष्ट्य का विवेचन भी भारतीय-मनीषियों ने सविस्तार किया है। इसी क्रम में एक शब्द-विशेष का प्रयोग मिलता है— 'नीराजन'। यह एक भक्तिपरक प्रक्रिया-विशेष है। भारतीय-परम्परा में इसका जो परिचय मिलता है, उसका संक्षिप्त-विवरण निम्नानुसार
___ कोशकारों ने 'नीराजन' शब्द को स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग —दोनों लिंगों में स्वीकार किया है। स्त्रीलिंग में इसका रूप बनता है 'नीराजना' और नपुंसकलिंग में इसका रूप 'नीराजनम्' बनता है। पद-परिचय की दृष्टि से निर्' उपसर्गपूर्वक ‘राज्' धातु से 'ल्युट' प्रत्यय का विधान करने पर 'नीराजन' शब्द निष्पन्न होता है। स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर इसी में स्त्रीत्ववाची 'टाप्' प्रत्यय का विधान करके 'नीराजना' रूप बनता है। जबकि नपुंसकलिंग में “सोरम् नपुंसके” सूत्र से प्रथमा एकवचन के 'सु' 'अम्' आदेश होकर 'नीराजनम्' रूप बन जाता है।
इसकी व्युत्पत्ति इसप्रकार मानी गयी है
"नि:शेषेण राजनं यत्र सा नीराजना" अर्थात् सम्पूर्णरूप से शोभा जिसमें हो, वह नीराजना है। अथवा "नीरस्य शान्त्युदकस्य अजनं क्षेपो यत्र सा नीराजना" अर्थात् 'नीर' या 'शांतिजल' का क्षेपण जिसमें किया जाये, वह 'नीराजना है।'
इसके अर्थ में 'दीपदान' या 'आरती' शब्दों का प्रयोग कोशग्रन्थों में प्राप्त होता है।' श्री वामन शिवराम आप्टे जी ने अपने संस्कृत-हिन्दी-कोश' में इस शब्द का अर्थ 'अर्चना के रूप में देवमूर्ति के सामने प्रज्वलित दीपक घुमाना' किया गया है। जैन-परम्परा में देवोपनीत रत्नमय-दीपों से नीराजन करने का उल्लेख मिलता है, क्योंकि उनमें अग्नि-प्रज्वालन-सम्बन्धी जीवदया का पालन होता है। वैदिक-परम्परा के अनुसार नीराजन के पाँच प्रकार बताये गये हैं
“पञ्च-नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया। द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा ।।
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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