Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 152
________________ चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम् । पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टांगं यथाविधिः ।।" अर्थ :-- दीपमाला द्वारा आरती करना पहिला-नीराजन है, कमलयुक्त जल से आरती करना दूसरा-नीराजन है, धुले हुए (श्वेत) वस्त्र से आरती करना तीसरा-नीराजन है, आम्र आदि के पत्रों से आरती करना चौथा-नीराजन है तथा साष्टांग-प्रणाम करना पाँचवाँ-नीराजन ___ इसमें प्रथम-नीराजन में आरात्रिक-प्रदीप (रात भर जलनेवाले दीपक) के द्वारा नीराजन करना चाहिये। इस प्रदीप में पाँच या सात बत्तियाँ जलायी जाती हैं। जैसाकि कहा है- "कुंकुमागुरु-कर्पूर-घृत-चन्दन-निर्मिता:। वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्त्वा वन्दापनीयकम् ।।" 'हरिभक्ति विलास' में लिखा है कि आरती करने से पहिले मूलमन्त्र से तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिए और महावाद्य की ध्वनि एवं 'जय शब्दोच्चारणपूर्वक शुभपात्र में घृत या कर्पूर द्वारा विषम-संख्या में अथवा अनेक वर्तिकायें (बातियाँ) जलाकर नीराजन करना चाहिये। वैदिक-परम्परा के अनुसार तो देवता की आरती की वंदना दोनों हाथों से करनी चाहिए, एक हाथ से नहीं। तथा जो ऐसा नहीं भी कर सकें, तो आरती के अवलोकनमात्र से ही उन्हें तत्सम्बन्धी अशेष-पुण्य की प्राप्ति होना प्ररूपित किया गया है। इतना ही नहीं, नीराजन की दिशा का भी महत्त्व वैदिक-परम्परा में बताया गया है। तदनुसार उत्तरपूर्वकोण या ईशान-दिशा में खड़े होकर दीप से नीराजन करना चाहिये। जबकि भारतीय-परम्परा में अग्नि की दिशा दक्षिणपूर्व या आग्नेय-दिशा मानी गयी है। उत्तरपूर्व दिशा के पूज्य होने के कारण ही संभवत: ऐसा विधान किया गया है। ___ वैदिक-परम्परा के अनुसार यदि पूजा आदि में मन्त्रादि से हीनता रह गयी हो, तो 'नीराजन' करने से पूजा की विधि निर्दोष व परिपूर्ण मानी जाती है। जैसाकि 'स्कन्दपुराण' में लिखा है— “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत्कृतं पूजनं हरेः।। सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ।।" जैन-परम्परा की पूजाविधि में भी इससे कुछ साम्य रखनेवाला एक पद्य प्राप्त होता है— “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। तत्सर्वं क्षम्यतां देव ! रक्ष-रक्ष जिनेश्वर ।।" यह पद्य जिनेन्द्र-पूजन के अन्त में पढ़े जानेवाले 'क्षमापना-पाठ' का अंग है। संभव है कि जैनों के किसी वर्ग में यह पाठ 'नीराजन'-प्रक्रिया के साथ ही पढ़ा जाता होगा। आज भी ऐसा कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होता है। किन्तु अग्निमय दीप जलाकर नीराजन करना जैनों की अहिंसक-संस्कृति के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है। प्रतीत होता है कि वैदिक-परम्परा 00 150 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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