Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 144
________________ जिनमें से एक स्थितिपालक या शुद्धाचारी था, जो नग्नता पर बल देता था और दूसरा शारीरिक रूप से वृद्ध तथा अक्षम जैन-साधुओं का वर्ग था, जो पहले वर्ग के दिगम्बरत्व का समर्थक नहीं था। कालान्तर में यही शुद्धाचारी (जिनकल्पी) और शिथिलाचारी (स्थविरकल्पी) साधु क्रमश: 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' सम्प्रदायों के रूप में प्रतिफलित हो गये होंगे। जो भी हो, यह बात युक्तियुक्त प्रतीत होती है कि इन दोनों सम्प्रदायों के मध्य मतभेद धीरे-धीरे बढ़ते गये, जो ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग अंत तक रूढ़ हो गये। उज्जैन से आगे के भारत के पश्चिमी भाग ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में ही जैनधर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं। साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार संम्प्रति मौर्य के भाई सालिशुक ने सौराष्ट्र में जैनधर्म के प्रसार में योग दिया। गुजरात-काठियावाड़ के साथ जैनधर्म का परम्परागत सम्बन्ध बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के समय तक पहुँचता है, जिन्होंने 'काठियावाड़' में मुनिदीक्षा ली थी। इसप्रकार प्राय: ईसापूर्व दूसरी शताब्दी तक कलिंग, अवन्ती और सौराष्ट्र जैनधर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं। उत्तरकालीन जैन साहित्य में प्रतिष्ठान उत्तरी दक्षिणापथ में स्थित वर्तमान पैठन' में शासन करने वाले सातवाहनवंशी नरेश सालाहण या शालिवाहन से सम्बन्धित कथानक प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। कालकाचार्य ने, जिनका पौराणिक-सम्बन्ध पश्चिमी-भारत के शक-शासक के साथ रहा था, शालिवाहन से भी सम्पर्क किया बताया जाता है। हाल ही में प्रो. सांकलिया ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग के एक शिलालेख को प्रकाश में लाये हैं, जिसका प्रारम्भ उनके अनुसार एक जैनमन्त्र के साथ होता है। तथापि, सातवाहनों के साथ जैनों के व्यापक-सम्बन्धों के प्रमाण अत्यल्प ही हैं। सुदूर दक्षिण में सिंहनन्दि द्वारा ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग गंग-राज्य की स्थापना के साथ-साथ जैनधर्म ने वस्तुत: 'राष्ट्रधर्म' का रूप प्राप्त कर लिया था। कोंगुणिवर्मन, अविनीत तथा शिवमार जैसे राजा तथा उनके उत्तराधिकारी भी जैनधर्म के परम- उपासक थे, जिन्होंने जैन-मन्दिरों, मठों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के लिए अनुदान दिये थे। गंग-राजाओं की भाँति, कदम्ब-राजा (चौथी शती ई. से) भी जैनधर्म के संरक्षक थे। काकुत्स्यवर्मन, मृगेशवर्मन, रविवर्मन एवं देववर्मन के शासनकालों के शिलालेख कदम्बराज्य में जैनधर्म की लोकप्रियता के साक्षी हैं। इन अभिलेखों में श्वेतपटों, निर्ग्रन्थों तथा कूर्चकों (नग्न तपस्वियों) के उल्लेख हैं, जो कि विभिन्न-साधुसंघों में संगठित रहे प्रतीत होते हैं। ये अभिलेख देवप्रतिमाओं की घृत-पूजा जैसी कतिपय प्रथाओं का भी उल्लेख करते हैं। __ ऐसे भी कुछ साक्ष्य मिले हैं, जिनसे विदित होता है कि सुदूर दक्षिण के कतिपय चेरवंशीय नरेश भी जैन-आचार्यों के संरक्षक रहे थे। गुएरिनॉट ने चोल-शासनकाल के कुछ शिलालेखों का विवरण दिया है, जिनमें जैन-संस्थाओं के लिए भूमि प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है। 00 142 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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