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आजीवक-सम्प्रदाय का संस्थापक गोसाल मक्खलिपुत्त' था। वह 'श्रावस्ती' का निवासी था। परन्तु उसके सुनिश्चित प्रभाव-क्षेत्र का निर्णय करना दुष्कर है। यह तो सुविदित है कि आजीवकों का अस्तित्व अशोक के समय में और उसके भी उपरान्त रहा।
महावीर के ग्याह मुख्य-शिष्य गणधर थे, जिन्होंने जैनसंघ को उपयुक्त रूप में अनुशासित रखा था। ये सभी गणधर ब्राह्मण थे, जो बिहार की छोटी-छोटी बस्तियों से आये प्रतीत होते हैं। उनमें मात्र दो गणधर राजगृह' और 'मिथिला' जैसे नगरों से आये थे। महावीर के संगठन-कौशल तथा उनके गणधरों की निष्ठा ने जैन-संघ को सुव्यवस्थित बनाये रखा; किन्तु महावीर के जीवनकाल में ही 'बहुरय' तथा 'जीवपएसिय' नामक दो पृथक् संघ गठित हुए बताये जाते हैं। यद्यपि उन्हें कोई विशेष-समर्थन प्राप्त हुआ नहीं लगता । अन्त में दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघ-भेद ही ऐसा हुआ, जिसने जैनधर्म के विकास-क्रम, प्रसार-क्षेत्र, मुनिचर्या और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया। महावीरोपरान्त का सहस्राब्द
दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद के प्रसंग में ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी में दक्षिण-भारत में जैनधर्म के प्रसार का उल्लेख मिलता है। परन्तु इस पर चर्चा करने के पूर्व हम महावीर के निर्वाणोपरान्त तथा मौर्यों से पूर्व के युग में उत्तर-भारत में जैनधर्म के प्रसार का लेखा-जोखा ले लें।
ईसा-पूर्व की चौथी शताब्दी में हुए नन्दों के कतिपय पूर्वजों का महावीर के साथ कुछ सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। अनुश्रुति है कि महाराज सेणिय बम्भसार (श्रेणिक बिम्बिसार) और उसका पुत्र कूणिय (कुणिक) या अजातसत्तु (अजातशत्रु) महावीर के भक्त थे। अजातशत्रु के शासनकाल में ही गौतम बुद्ध और महावीर के निर्वाण हुए। किन्तु यदि महावीर का निर्वाण ईसापूर्व 527 और बुद्ध का 487 या 483 में हुआ मानें, तो इस कथन को सिद्ध करने में कठिनाई आती है। बौद्ध-ग्रन्थों में इस नरेश के प्रति की गयी निन्दा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसका झुकाव जैनधर्म की ओर था। यही बात उसके उत्तराधिकारी 'उदायी' के विषय में कही जा सकती है, जिसके द्वारा पाटलिपुत्र में एक जैन-मन्दिर का निर्माण कराया गया बताया जाता है, तथा जिसके राजमहल में जैन-साधुओं का निर्बाधरूप से आना-जाना था। यद्यपि पाटलिपुत्र में उक्त-मन्दिर के अस्तित्व का कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है; तथापि यह सम्भावना है कि इस नरेश के समय में यह प्रसिद्ध राजधानी जैनधर्म का केन्द्र बन गयी थी।
उसके उत्तराधिकारी नन्द-राजाओं ने भी जैनधर्म को अल्पाधिक-संरक्षण प्रदान किया प्रतीत होता है। एक अनुश्रुति के अनुसार नवम् नन्द का जैन-मंत्री ‘सगडाल' सुप्रसिद्ध जैनाचार्य स्थूलभद्र का पिता था। 'मुद्राराक्षस' नाटक में वर्णन मिलता है कि जैन-साधुओं को राजा नन्द का विश्वास प्राप्त था। सम्भवत: इसीलिए चाणक्य ने नन्द को राजपद से
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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