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कुन्दकुन्द - वचनामृत
सुत्तत्यं जिणभणिदं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणदि सो हु सद्दिट्ठी । । जो सर्वज्ञकथित, हे प्राणी ! कहलाती है वह जिनवाणी । नीर-क्षीर पृथक् कर लेता है मराल - सा जैसे प्राणी ।। बाह्य, आत्म दो पृथक्-तत्त्व है, निर्णय करती जिसकी दृष्टि । श्रुतज्ञान अनुसार मनुज वह, कहलाता है सम्यक् - दृष्टि । । जो संजमेसु सहिदो आरंभ-परिग्गहेसु विरदो वि । सो होदि वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए।। प्राणीमात्र के लिए हृदय में, लहराता करुणा का सागर । सर्व-परिग्रह-रहित जगत् में, वन्दनीय है संत दिगम्बर । । मनुज संग सुर और असुर भी करते है चरणों का वन्दन । उन चरणों की धूल शीश पर शोभित होती जैसे चन्दन ।। पंचमहव्वदजुत्तो तीहिं गुत्तीहि जो स संजदो होदि । णिग्गंथ मक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य । । पंच महाव्रत, तीन- गुप्तियाँ हैं श्रमणो ! मुक्ति की सीढ़ी । आदिकाल से आरोहण, करती आई श्रमणों की पीढ़ी । । संयम-सहित निर्ग्रन्थ-श्रमण ही, मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं । मुक्तिमार्ग दुर्लभ, चंचल मन, क्षण में पाँव फिसल सकते हैं ।। गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेल अत्थेण । इच्छा जा हु यिता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई । । सागर में असीम जल किन्तु, ग्रहण किया जाता है उतना । वस्त्रादि स्वच्छ रखने को, आवश्यक होता है जितना । । अल्प-ग्रहण करते हैं साधु, अपरिग्रही और सुखी हैं । इच्छायें असीम होने से जग के मानव सदा दुःखी हैं ।।
प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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- मिश्रीलाल जैन
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- (सुत्तपाहुड, 5 )
- ( सुत्तपाहुड, 11 )
- ( सुत्तपाहुड, 20 )
- ( सुत्तपाहुड, 27 )
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