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पुरानी वैशाली-नगरी होगी। लेकिन, कोई निश्चित-प्रमाण उन्हें नहीं मिला था। कनिंघम-साहब में बड़ी दिव्य-दृष्टि थी। उन्होंने एक दैवी-प्रेरणा से सत्य प्रमाणित किया, और यह सिद्ध कर दिया कि प्राचीन-वैशाली का स्थान यही होना चाहिये। आप कल्पना कीजिये कि उन दिनों यात्रा की कितनी असुविधा थी, सरकारी-सहायता प्राप्त नहीं थी, वे यहाँ की भाषा नहीं समझ सकते थे, लोग उन्हें अजनबी समझते थे; लेकिन फिर भी उन्होंने इस सुदूर-देहात में आकर अध्ययन किया, और सप्रमाण यह बतलाने का साहस किया कि वर्तमान 'बसाढ़' गाँव ही प्राचीन-वैशाली है। डॉ. कनिंघम सन् 1862 से 1884 ई. तक यहाँ कई बार आये। उनका यहाँ आना हमारे लिये बहुत महत्त्व की बात है। डॉ. कनिंघम से पूर्व सन् 1834 ई. में श्री एस्टीवेन्शन नामक एक दूसरे विदेशी विद्वान् यहाँ आये थे, और उन्होंने इस भूमि के सम्बन्ध में अनुमान किया था कि यहीं वैशाली' है। लेकिन कनिंघम-साहब ने बड़ी खोज के साथ यहाँ के गाँवों को, यहाँ के स्थानों को देखकर फाहियान, ह्येनत्सांग के यात्रा-विवरणों को पढ़कर पहले-पहल दृढ़ता के साथ यह कहा था, कि “वैशाली यही है।” परन्तु, फिर भी वैशाली है, यह सिद्ध नहीं हो सका। यह केवल कल्पना की बात रही, अनुमान की बात रही। कनिंघम-साहब के कुछ उद्योग करने पर भारत-सरकार ने 'आर्कियोलॉजिकल-विभाग' स्थापित किया, और सन् 1903-4 ई. में और सन् 1913-14 ई. में दो और विदेशी-विद्वानों का आगमन हुआ, जिनमें एक का नाम 'डॉ. बालू' और दूसरे का नाम 'डॉ. स्पूनर' था। उन्होंने यहाँ कई जगह खुदाइयाँ कीं। उस खुदाई में बहुत पुरानी वस्तुयें तो नहीं मिल सकीं; क्योंकि पानी आ जाने के कारण आगे बढ़ना सम्भव नहीं था; लेकिन खुदाई में प्राप्त मिट्टी की मुहरों पर उत्कीर्णित-लेखों से यह सिद्ध हो गया कि यही प्राचीन-वैशाली है। - वैशाली ज्ञान, कर्म और राजशक्ति की त्रिवेणी रही है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन-परम्परा की त्रिवेणी रही है। ज्ञानशक्ति, आत्मशक्ति और धनशक्ति की त्रिवेणी रही है। इसमें कोई शंका नहीं कि इस स्थान पर ज्ञान की बड़ी भारी-साधना थी। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में निकले, तो उन्हें और कोई स्थान नहीं दिखा, वैशाली में आकर ही उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। ज्ञान की साधना के लिये यह बड़ी ही पवित्र-भूमि मानी जाती रही है। वीरता के लिये तो वज्जियों और लिच्छवियों की चर्चा करना बेकार है। यह तो इतिहास-प्रसिद्ध है कि लिच्छवि अजेय-शक्ति थे। यहाँ फूट डालकर अजातशत्रु ने उन्हें पराजित किया था। लिच्छवियों की शक्ति गुप्तकाल तक अक्षुण्ण रही, तभी समुद्रगुप्त जैसा महान् सम्राट अपने को 'लिच्छवि-दौहित्र' कहने में गर्व का अनुभव करता था।
गुप्तकाल के राजा का इतना प्रभुत्व जमा, उसका एक बहुत बड़ा कारण लिच्छवियों के साथ उसका वैवाहिक सम्बन्ध था। ज्ञानशक्ति और राज्यशक्ति के अलावा एक तीसरी ताकत भी यहाँ पर थी, यह बड़ी जबरदस्त थी, जो खुदाई में प्राप्त सामग्री से मालूम होती है, पुराने ग्रन्थों से जिनका पता चलता है। यह स्थान व्यापार का एक बड़ा-केन्द्र था। बड़े-बड़े सेठ
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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