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अशोक सातवें शिलालेख में कहता है— “सवे ते संयमं च भावसुधिं च इछति ....विपुले तु पि दाने यस नास्ति संयमे, भावसुधिता व कतंत्रता व दढमतिता च निचा बाढं।" ___वे सभी संयम और भावशुद्धि चाहते हैं। जो बहुत दान नहीं कर सकता, उसके भी संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता, दृढभक्ति नित्य-आवश्यक है।” जैनों में भी त्रिगुप्ति में वर्णित मनोगुप्ति—भावों की शुद्धि से ही सम्बन्धित है तथा जैनों की यह दृढ़-धारणा है कि
___ “मन: एव मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयोः ।" अपव्ययता और अपभाण्डता
तृतीय-शिलालेख में अशोक कहता है—“अपव्ययता अपभाण्डता साधु" अल्पव्यय तथा अल्पबचत अच्छी है। यह सिद्धान्त जैनों के 'अपरिग्रहवाद' के सिद्धान्त से प्रेरित है; क्योंकि 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है
बहारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।-(तत्त्वार्थसूत्र, 6/15)
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य । ---(तत्त्वार्थसूत्र, 6/17) अर्थात् बहुत-आरम्भ और परिग्रह से नरक-आयु का आस्रव होता है तथा अल्पारंभपरिग्रह से मनुष्य-आयु का आसव होता है।
इन सिद्धान्तों की उत्कृष्टता यह है कि यदि नहीं भी है और उसकी इच्छा ही है, तब भी परिग्रह है- “मूर्छा परिग्रहः।" – (तत्त्वार्थसूत्र, 7/17)
इसीलिये जैनों में भोगोपभोग-परिमाणवत' लिये जाने की परम्परा है।
उपरोक्त तत्त्वों के अतिरिक्त दया, दान, विनय, चिन्तन, तप, सहिष्णुता, समानता, मैत्री, सेवा, सुश्रूषा, कल्याण, इहलोक-परलोक, सच्ची विजय, सच्चा यश आदि अनेकों ऐसे तत्त्व है, जिनके बारे में अशोक की मान्यतायें जैनत्व के सिद्धान्तों से मिलती है। इन सभी पर विस्तार से विवेचन करना एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध का विषय है। इस संक्षिप्त-आलेख में सभी पर चर्चा करना सम्भव नहीं है।
संक्षेप में अशोक के समान की प्राणीमात्र से मैत्री एवं भ्रातृत्व का संचार, नैतिक-भावों का जागरण, परस्पर प्रेम एवं सौहार्द की कामना प्रत्येक जैन-श्रावक नित्य करता है :
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
-(सामायिक-पाठ, आचार्य अमितगति) मैत्रीभाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे । दीन-दु:खी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ।।
–(मेरी भावना, पं. जुगलकिशोर)*
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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