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सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वा प्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतन्तुल्यमहिंसया।। अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा। अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता तथा पिता।। एतत् फलमहिंसाया: भूयश्च कुरु पुंगव ।
न हि शक्त्या गुणा: वक्तुमपि वर्षशतैरपि।।' 'मत्स्यपुराण' में भी अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म' बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से जितना पुण्य प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य अहिंसा के पालन से प्राप्त होता है'
चतुर्वेदेषु यत्पुण्यं सत्यवादिषु ।
अहिंसायां तु यो धर्मो गमनादेव तत्फलम् ।।' 'नारदपुराण' में अहिंसा को समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करनेवाली तथा पापों से छुड़ानेवाली बतलाया है
__ अहिंसा सा नृप प्रोक्ता सर्वकामप्रदायिनी।
कर्म-कार्य-सहायत्वमकार्यं परिपन्थता।।' भगवान् महावीर की यह अहिंसा केवल जैनधर्म अथवा भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं रही। यह विश्व के समस्त धर्मों में एक अनिवार्य-अंग के रूप में अंगीकृत हो गई। वस्तुत: अहिंसा का व्यापक-परिक्षेत्र है। यह करुणा से उत्पन्न होती तथा करुणा में परिव्याप्त रहती है। जब तक मानव-मन में करुणा का साम्राज्य होता है, तब तक वह हिंसक नहीं हो सकता। जब तक मानव-मन करुणा से आप्लावित रहता है, तब तक वह हिंसा का लेश मात्र भी नहीं सह पाता है; तथा हिंसा के दर्शन मात्र से उसकी करुणा घनीभूत होकर अश्रुरूप में प्रवाहित होने लगती है। तभी तो व्याध के द्वारा क्रौञ्च (पक्षी)-युग्म में से एक के मारे जाने पर महर्षि बाल्मीकि के मुख से वेदना का घनीभूत-स्वर निकला और आदिकाव्य की रचना हुई।
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।। जैनधर्म के प्रमुख आचार्य अमितगति ने भी अहिंसा के मूल में करुणा को स्वीकार किया है- सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधात् देव ।। भगवान् महावीर के अहिंसा सिद्धान्त का कारुणिक-निदर्शन महाकवि भवभूति का उत्तररामचरित' है, जहाँ रावण के द्वारा सीता का अपहरण किये जाने पर राम के कारुणिक क्रन्दन से जड़-पदार्थ ग्रावा भी रोने लगती है, तथा पत्थर का भी हृदय विदीर्ण होने लगता
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प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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