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कि अशोक प्रारम्भिक जीवन में जैनधर्मावलम्बी था; परन्तु बाद में उसने बौद्धधर्म को स्वीकार कर लिया था। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार “भारत के सीमान्त से विदेशी-सत्ता को सर्वथा पराजित करके भारतीयता की रक्षा करनेवाले सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैनाचार्य श्री भद्रबाहु से दीक्षा-ग्रहण की थी। उनके पुत्र बिम्बसार थे। सम्राट अशोक उनके पौत्र थे जो कुछ दिन जैन रहकर पीछे बौद्ध हो गये थे।" जिन महात्मा बुद्ध के धर्म की प्रभावना की चेष्टा अशोक ने की, वे महात्मा बुद्ध भी मूलत: सर्वप्रथम जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। पालि-त्रिपटकों के अनुसार वे नग्न दिगम्बर-जैन-साधु बने थे और कई वर्षों तक उन्होंने साधुचर्या को निभाया भी था। किन्तु बाद में इस कठिन-चर्या को नहीं निभा पाने के कारण उन्होंने सांसारिक-गृहस्थावस्था एवं कठोर-साधुचर्या के बीच के मध्यम-मार्ग को अपनाया तथा उन्हीं के अनुरूप धार्मिक-सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। ___अत: अशोक व्यक्तिगत-जीवन में भले ही बौद्ध-धर्मावलम्बी हो गया था; परन्तु धार्मिक दृष्टि से उसके संस्कार जैनत्व के ही थे। जैन और बौद्ध-धर्म के मध्य राजा अशोक इतना कम-भेद देखता था कि उसने सर्वसाधरण में अपना बौद्ध होना अपने राज्य के बारहवें वर्ष में (247 ई.पू.) कहा था। इसीलिए करीब-करीब उसके कई शिलालेख के जैन सम्राट् के रूप में है। उसने सर्वसामान्य के लिए जिस धर्म को उपदेशित किया, वह एक समन्वयवादी सार्वजनिक-धर्म होते हुए भी उसकी धर्म-प्रभावना मूलत: जैनधर्म से अनुप्राणित प्रतीत होती है। अत: इस आलेख में अशोक के अभिलेखों में उपलब्ध जैन-परम्परा के पोषक-तत्त्वों का परिचय देने का प्रयास किया गया है।
धम्म
अशोक के लेखों में जिस धर्म का उल्लेख है, वह कोई धर्मविशेष न होकर आचरण-संहिता मात्र है; जिसके दो रूप है (1) व्यावहारिक, (2) शास्त्रीय । व्यावहारिक-रूप में वह जीवन के विभिन्न-सम्बन्धों के प्रति सदाचार के विस्तृत-नियमों का विधान करता है। इस आचार-संहिता या व्यावहारिक-धर्म के बारे में वह स्वयं स्तम्भ-लेखों में लिखता है"धमे साधु, कियं चु धमेति? अपासिनवे, बहुकयाने, दया, दाने, सचे, सोचये।"
-(स्तम्भ-लेख, 2) "एस हि धंमापदाने धंमपटीपति च यसा इयं दया दाने, सचे, सोचये, मदवे साधवे च लोकस हेवं वढिसति ति।" - (स्तम्भ-लेख, 7) __ जैनधर्म के प्रतिष्ठित प्रमुख-आचार्य कुन्दकुन्द न भी 'बारस-अणुक्खा ' में धर्म को उत्तमक्षमा आदि दस प्रकार मय माना है
“उत्तम-खम-मद्दवज्जव-सच्च-सउच्चं च संजमं चेव ।
तव-तागाकिंचिण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि।।" – (गाथा 10) वस्तुत: दस भेदोंवाला धर्म नहीं है; अपितु उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच,
प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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