Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 118
________________ कर दिया गया था। वह लाचार और पराधीन हो गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों में पुरुष की बराबरी से भाग लेना उसके लिये निषिद्ध था और सर्वत्र “स्त्री-शूद्रौ नाधीयताम्" का नियम कठोरता के साथ लागू किया जा रहा था। मानव-समाज के अर्धभाग का प्रतिनिधित्व करनेवाले नारी-समाज को भगवान् महावीर ने जब इसप्रकार प्रताड़ित और शोषित देखा, जो उन्होंने नारी-स्वतन्त्रता और उसके समत्व की घोषणा ही नहीं की, अपितु उसकी व्यावहारिक-क्षेत्र में अवतारणा भी की। जैसाकि पीछे कहा जा चुका है कि आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव ने पुत्र एवं पुत्रियों को समान माना, उन्हें समानाधिकार दिये, समाज के प्रत्येक क्षेत्र में नारी को प्रतिष्ठित किया और इसप्रकार स्वस्थ-समाज का निर्माण किया। यही परम्परा आगे भी जारी रही। बल्कि उनके संघों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ही अधिक रही। हमारे प्राचीन आचार्यों ने इस परम्परा का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है, जिसकी संक्षिप्त-झांकी निम्नलिखित मानचित्र से मिल सकती है तीर्थंकर साधुओं की साध्वियों की श्रावकों की श्राविकाओं नाम संख्या संख्या संख्या की संख्या 1. आदिनाथ 84000 350000 3 लाख 5 लाख अजितनाथ 100000 330000 3. सम्भवनाथ 200000 330000 4. अभिनन्दननाथ 300000 330600 5. सुमतिनाथ 320000 330000 6. पद्मप्रभु 330000 420000 7. सुपार्श्वनाथ 300000 330000 8. चन्द्रप्रभु 250000 380000 9. पुष्पदन्त 200000 390000 2 लाख 4 लाख 10. शीतलनाथ 100000 380000 11. श्रेयांसनाथ 84000 130000 12. वासुपूज्य 72000 106000 13. विमलनाथ । 68000 1030000 14. अनन्तनाथ 66000 108000 15. धर्मनाथ 64000 62400 16. शान्तिनाथ 62000 60300 17. कुन्थुनाथ 60000 60350 1 लाख 3 लाख 18. अरनाथ 50000 60000 19. मल्लिनाथ 40000 55000 20. मुनिसुव्रतनाथ 30000 50000 00 116 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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