________________ आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल एवं रचयिता : 7 स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित चन्द्रकवेध्यक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है / मात्र देवेन्द्रस्तव और ज्योतिषकरण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ है / 11 देवेन्द्रस्तवके कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिषकरण्डक के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख है / जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं, ऋषिपालित का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध होते हैं / कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है / इस सन्दर्भ में और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की है / 12 देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई०पू० प्रथम शताब्दी है / इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध लेख में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं / ज्योतिषकरण्डक के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति साहित्य में उपलब्ध होता है / 13 आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं / उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी चूर्णी साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कुसलानुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक के कर्ता के रूप में भी आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है / 14 वीरभद्र के काल के संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक की भूमिका में की है / 15 हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दी के पूवार्द्ध के आचार्य हैं / ... इसप्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है / किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण प्रकीर्णक ग्रन्थ ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे, इस तथ्य का निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं / वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र में उल्लिखत हैं, वस्तुतः प्राचीन हैं और . उनमें जैनों के सम्प्रदायगत विभेद की कोई सूचना नहीं है / मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की किञ्चित सूचना मिलती है / प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश मूलतः आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिकरण की साधना के विषय में प्रकाश डालते हैं / ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के प्रस्तोता हैं / यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन परम्परा के कुछ सम्प्रदायों में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो।