________________ 6 : प्रो० सागरमल जैन के पश्चात लगभग पाचवीं-छठीं शती में अस्तित्व में आया है / चूँकि मूलाचार और भगवती आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान का उल्लेख मिलता है, अतः ये ग्रन्थ पाचवीं शती के बाद की रचनाएँ हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पांचवीं शती के पूर्व की रचना हैं / 2. मूलाचार में संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक दोनों ग्रंथों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ये ग्रंथ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। 3. भगवती आराधना में भी मरणविभक्ति की अनेक गाथाएँ समान रूप से मिलती हैं / वर्ण्य-विषय की समानता होते हुए भी भगवती आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है / प्राचीन स्तर के ग्रंथ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे। अतः वे आकार में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके जबकि लेखन परम्परा के विकसित होने के पश्चात विशालकाय ग्रंथ निर्मित होने लगे / मूलाचार और भगवती आराधना दोनों विशाल ग्रंथ हैं, अतः वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं / वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य के वे सभी ग्रंथ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पांचवीं शती के पूर्व के हैं। प्रकीर्णकों में ज्योतिषकरण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है / इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता है / इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में विस्तार से विवेचन है उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है / इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ है / पादतिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति साहित्य में भी उपलब्ध होता है / वे लगभग ईसा की प्रथम शती में हुए, इससे यही फलित होता है कि ज्योतिषकरण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है / अंगबाह्य आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति जिसके आधार पर इस ग्रंथ की रचना हुई, एक प्राचीन ग्रंथ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण है वह ईस्वी पूर्व का है, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी इसे प्राचीन ग्रंथ सिद्ध करती है। __ अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ-तृतीय शती से प्रारम्भ होती है / परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलाणुबंधि अध्ययन-चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते हैं वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं / इसप्रकार प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थशती से प्रारम्भ होकर ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि तक व्यापक है / प्रकीर्णकों के रचयिता प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ में कहीं कोई उल्लेख नहीं है / प्राचीन