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प्राचीन भारतीय अभिलेख
कारण ही मालवी में वर्ण को हरूप (स्वरूप) कहते हैं। रंग से लिखने के कारण वर्ण कहलाता है। वर्ण लिखने का साधन कलम वर्णक (कलम) कहलाता था। ये सब लिखने के साथ ही खोद कर लिखने का उल्लेख अथर्ववेद (715015) में स्पष्ट ही प्राप्त है। जुए के लिखे धन का संलिखित और बाजी के धन को संरूध कहते थे।
अजैषं त्वा संलिखितमजैषमुत संरूधम्।
इसमें संलिखित उकेरी गयी लिपि की ओर संकेत प्रतीत होता है। वाणी को उकेरने की बात ऋग्वेद (१।१३०६) में भी कही गयी है
इमां वाचं..... सुम्नाय त्वामतक्षिषुः।
ऋग्वेद ( 10134) में अक्षसूक्त है। अक्ष पर अंकन तो होता ही है। ऋग्वेद में अष्टकर्णा से तात्पर्य वे गायें बतायी गयी हैं जिनके कान पर आठ का अंकन हो, पहचान के लिए। रामायण में सीता को पहचाने के लिए हनुमान वह अंगूठी देते हैं जिस पर राम नाम लिखा था
रामनामांकितं चेदं पश्य देव्यगुंलीयकम्।
ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद काल में भी लेखन और लिपि उकेरने की प्रथा थी और वह परवर्ती काल में भी रही है। लिपि और लिबि की चर्चा पाणिनि ने की और वार्तिककार कात्यायन ने यवनानी लिपि की चर्चा की। कात्यायन मध्यदेश के निवासी थे। वे उस लिपि और भाषा के बारे में जानते ही थे।
पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह तो ज्ञात होता है कि तत्कालीन पश्चिमी भारत में उत्कीर्ण करने की परम्परा अधिक मजबूत थी। सिन्धु-सभ्यता कालीन उत्कीर्ण लेखों को चाहे संतोषजनक रूप से अब तक न पढ़ा गया हो परन्तु यह तो स्पष्ट है कि उस समय उकेरने की प्रथा सुप्रचलित थी। ईरान में उत्कीर्ण लेख मिलते ही हैं। सर्वप्राचीन उकेरे गये लेखों के प्रमाण उधर ही मिलते हैं-भारत के शेष भागों में स्वल्प ही प्राप्त होते हैं। शेष भारत में उत्कीर्ण प्राग् अशोकीय स्वल्प प्राप्त होने से यह सिद्ध नहीं होता कि इधर के लोग लिखना नहीं जानते थे। उससे केवल यही सिद्ध किया जा सकता है कि भारत में उकेर कर लिखने की प्रथा लोकप्रिय नहीं थी और न प्रचलित थी। इसलिए पुरातन लेख नहीं मिलते हैं या स्वल्प ही मिलते हैं। वैदिक, उत्तर वैदिक, पौराणिक साहित्य के प्रमाण भारत में लेखन परम्परा को
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