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बात मुझे क्यों नहीं सूझी? रेबिमय्या, मायण, आओ; सन्निधान को उठाकर विनाम कक्ष में ले चलें।"
"न, हमें कुछ नहीं हुआ है । अभी हम बिना सहारे के चल सकते हैं।" कहते हुए बिट्टिदेव उठने का प्रयत्न करने लगे। यह इसलिए था कि अपनी माँ को यह अपनी कमजोरो मालूम न पड़े। परन्तु यह हुआ नहीं। उठने के इस प्रयत्न से वे गिरने का-सा अनुभव करने लगे। लेकिन अन्य लोगों के पकड़ने से गिरे नहीं।"ओह! पाँव अकड़ गया था इसलिए ऐसा हुआ। उदय ! वैसे ही कुछ क्षण खड़े रहेंगे तो ठीक हो जाएगा।" कहते हुए उदय की भुजा पर हाथ रखकर उसके सहारे उठ खड़े हुए। बोले, "माँ, ऐसा मत सोचिए कि मुझे कुछ हो गया है । घबड़ाइए नहीं। कुछ हो जाना चाहिए था, मगर आपके आशीर्वाद से सब अच्छा ही हुआ है।" ___ "केवल आशीर्वाद नहीं; मेरी शेष आयु को इसी क्षण तुम्हारे लिए धारापूर्वक दे देने के लिए भी तैयार हूँ। अब तुम्हारे ही बल पर राष्ट्र की प्रगति होनी है। प्रभु ने बहुत कुछ सोच रखा था। उन सबका साधन करना उनसे न हो सका। उनके मन की उन सभी आकांक्षाओं को अब तुम पूरा करो। स्वर्ग में वे तृप्ति पाएँगे।" एचलदेवी ने कहा।
"का नया सोच र. , म "अभी नहीं, पहले तुम आराम कर लो। फिर कभी बताऊँगी।" "तो मौ..."
"मुझे और तुमको भी कुछ नहीं होगा। प्रभु के मन की उन आकांक्षाओं को तुम लोगों से कहे बिना मैं तुम लोगों से जुदा नहीं हो जाऊँगी। प्रभु अब हम से जुदा हुए थे तब मैंने वचन दिया था। उसका पालन करूँगी। हाँ, अब चलो, आराम करो।"
"ठीक है, माँ।" बिट्टिदेव धीरे से कदम रखते हुए आगे बढ़े। अकेली चट्टलदेवी वहाँ रह गयी। शेष सब लोग वहां से बिट्टिदेव के साथ चले गये।
"उसके उस आत्मबल को तो देखो अप्पाजी, दूसरों का सहारा लेने पर कहीं मैं घबड़ा न जाऊँ और मेरा दिल फर न जाय-इसी से उसने अपने से न हो सकनेवाला काम किया है।" एचलदेवी ने कहा।
'वे तो किसी की बात मानते ही नहीं। वास्तव में यादवपुरी से इस यात्रा पर न जाने की हो राय सबने दी थी। लोगों के विरोध की सम्भावना करके ऐसा फैसला ही सुना दिया जिससे कोई कुछ न बोल सके। यहाँ से खबर पाते ही एक ही प्रहर के अन्दर यात्रा पर चल पड़े। जैसा आपने कहा, अपूर्व मनोबल है उनका।" शान्तलदेषी बोली।
"पहले से भी वह ऐसा है। तुमसे पाणिग्रहण करने के बाद वह आत्मबल दुगुना हो गया है। यह उसका भाग्य है। मेरी कोख से जनमा- यह मेरा भाग्य !
12 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन