Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(२) आदित्यम् । अदिति+सु+ण्य | आदित्+य। आदित्य+सु । आदित्यम्। यहां 'अदिति' शब्द से दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः' (४।१।८५) से प्राग्दीव्यतीय 'ण्य' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही 'बृहस्पति' शब्द से - बार्हस्पत्यम् । 'प्रजापति' शब्द से प्राजापत्यम् ।
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विशेष - (१) देवता । देव+सु+तल् । देवत+टाप् । देवता+सु । देवता ।
यहां देव शब्द से देवात् तल्' (५/४/२७) से स्वार्थ में तल् प्रत्यय होता है। 'तलन्त:' (लिङ्गानुशासन १1१७ ) से तत् प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । अत: 'अजाद्यतष्टाप्' (४|१|४) से टाप्' प्रत्यय होता है। संस्कृत भाषा में देवता' शब्द स्त्रीलिङ्ग है ।
(२) यहां देवता शब्द से मन्त्र का प्रतिपाद्य विषय लिया गया है। इस विषय में निरुक्तकार ने दैवत-काण्ड (७ 1१) में कहा है- 'यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छन् स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति' अर्थात् जिस कामना को लेकर ऋषि जिस देवता की स्तुति करते हैं वह उस देवतावाला मन्त्र कहाता है। ऋक्सर्वानुक्रमणी में कहा है- 'या तेनोच्यते सा देवता' अर्थात् मन्त्र के द्वारा जो कहा गया, वह उस मन्त्र का देवता होता है। इन दोनों वचनों के आधार पर मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय को देवता' कहते हैं।
"ये देवता चेतन-अचेतन भेद से दो प्रकार के होते हैं। चेतन में आत्मा, परमात्मा लिये जायेंगे तथा अचेतन में भौतिक पदार्थ लिये जाते हैं, अर्थात् जब अग्नि, इन्द्र, वायु आदि देवतावाची शब्द अध्यात्म-प्रक्रिया में अन्वित होते हैं तब ये देवता आत्मा, परमात्मा के वाचक होते हैं। जब ये आधिदैविक प्रक्रिया में होते हैं, तब ये अचेतन देवों के वाचक होते हैं।” (पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु-अष्टाध्यायीभाष्य प्रथमावृत्ति ४ । २ । २४० ) ।
आहुति- मन्त्र
(१) ओम् इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय - इदन्न मम । (२) ओम् अदित्यै स्वाहा । इदमिदित्यै - इदन्न मम । (३) ओं बृहस्पतये स्वाहा । इदं बृहस्पतये - इदन्न मम । (४) ओं प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये - इदन्न मम ।
परमात्मा के गुणों का स्मरण करते हुये उपरिलिखित प्रकार के मन्त्रों से यज्ञ में हवि (आहुति) प्रदान की जाती है।
अण् (इत्-आदेशः)
(२) कस्येत् ॥ २४ ॥
प०वि० - कस्य ६ । १ इत् १ । १ ।
अनु० - प्राग्दीव्यतीयोऽण् सा, अस्य देवता इति चानुवर्तते ।
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