Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सिद्धि-क्षौद्रम् । क्षुद्रा+भिस्+अञ् । क्षौद्र+अ । क्षौद्र+सु । क्षौद्रम् ।
यहां तृतीया-समर्थ 'क्षुद्रा' शब्द से कृत अर्थ में इस सूत्र से 'अञ्' प्रत्यय है। पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि और अंग के आकार का लोप होता है। ऐसे ही - भ्रामरम् आदि ।
इदमर्थप्रत्ययप्रकरणम्
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यथाविहितं प्रत्ययः
(१) तस्येदम् ॥ १२० ।
प०वि० तस्य ६ । १ इदम् १ ।१ ।
अन्वयः-तस्य प्रातिपदिकाद् इदं यथाविहितं प्रत्ययः । अर्थ:-तस्य इति षष्ठीसमर्थात् प्रातिपदिकाद् इदमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति ।
उदा०-उपगोरिदम्-औपगवम् । कपटोरिदम्-कापटवम्। राष्ट्रस्येदम्
राष्ट्रियम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तस्य) षष्ठी - समर्थ प्रातिपदिक से (इदम्) 'यह' अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है।
उदा० - उपगु का यह - औपगव। कपटु का यह - कापटव। राष्ट्र का यह - राष्ट्रिय । सिद्धि - (१) औपगवम् । उपगु+ङस् +अण् । औपगो+अ । औपगव्+अ । औपगव+सु । औपगवम् ।
यहां षष्ठी-समर्थ 'उपंगु' शब्द से इदम् (यह ) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्रत्यय का विधान किया गया है, अत: 'प्राग्दीव्यतोऽण्' (४।१।८३) से यथाविहित प्राग्दीव्यतीय 'अण्' प्रत्यय होता है । पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि तथा 'ओर्गुण:' ( ६ । ४ । १४६) से अंग को गुण होता है। ऐसे ही - कापटवम् ।
(२) राष्ट्रियम् । यहां षष्ठी - समर्थ 'राष्ट्र' शब्द से इदम् अर्थ में 'राष्ट्रावारपाराद् घखौँ' (४/२/९३) से यथाविहित 'घ' प्रत्यय है । 'आयनेय०' (७।१।२) से 'घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है।
यत्
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(२) रथाद् यत् । १२१ ।
प०वि०-रथात् ५।१ यत् १ ।१ । अनु०-तस्य, इदमिति चानुवर्तते ।
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