Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

View full book text
Previous | Next

Page 555
________________ ५१८ ष्ठल् (२) आवसथात् ष्ठल् ॥७४ । प०वि०-आवसथात् ५ ।१ ष्ठल् १।१ । अनु० - तत्र वसति इति चानुवर्तते । अन्वयः-तत्र आवसथाद् वसति ष्ठल् । अर्थः- तत्र इति सप्तमीसमर्थाद् आवसथ - शब्दात् प्रातिपदिकाद् वसतीत्यस्मिन्नर्थे ष्ठल् प्रत्यय भवति । उदा० - आवसथे वसति आवसथिकः । स्त्री चेत् - आवसथिकी । पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषाः अर्थ- (तत्र) सप्तमी - समर्थ ( आवसथात्) आवसथ प्रातिपदिक से ( वसति) बसता है अर्थ में (ष्ठल्) ष्ठल् प्रत्यय होता है। उदा० - जो आवसथ (घर) में बसता है वह - आवसथिक (गृहस्थ ) । यदि स्त्री हो तो- आवसथिकी। सिद्धि-आवसथिकः। आवसथ + ङि+ष्ठल् । आवसथ + इक। आवसथिक+सु । आवसथिकः । यहां सप्तमी-समर्थ ‘आवसथ' शब्द से वसति- अर्थ में इस सूत्र से 'ष्ठल्' प्रत्यय है। 'ठस्येक:' (७1३1५०) से ह्' के स्थान में 'इक्' आदेश और अंग के अकार का पूर्ववत् लोप होता है। प्रत्यय के षित होने से स्त्रीत्व-विवक्षा में 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४/१/४१) से 'ङीष्' प्रत्यय होता है- आवसयिकी । प्रत्यय के लित् होने से 'लिति' (६ 1१1१९०) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है - आवसर्थिकः । ।। इति प्राग्वहतीयप्रत्ययार्थप्रकरणं ठगधिकारश्च समाप्तः । । प्राग्-हितीयप्रत्ययार्थप्रकरणम् (१) प्राग्घिताद् यत् । ७५ । प०वि० - प्राक् १ ।१ हितात् ५ ।१ यत् १ । १ । यत्-अधिकारः अन्वयः - हितात् प्राग् यत् । अर्थ:- 'तस्मै हितम्' (५।१।५ ) इति वक्ष्यति, तस्माद् हित- शब्दात् प्राग् यत् प्रत्ययो भवतीत्यधिकारोऽयम् । वक्ष्यति तद् वहति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624