Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 564
________________ ५२७ चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः अस्मिन् (सप्तमी) अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितम् (यत्)- {दृश्यम्) (१) पदमस्मिन् दृश्यम्।८७। प०वि०-पदम् १।१ अस्मिन् १।१ दृश्यम् १।१ । अनु०-यत् इत्यनुवर्तते, ‘पदम्' इति प्रथमानिर्देशादेव प्रथमासमर्थ विभक्तिर्गृह्यते। अन्वय:-प्रथमासमर्थात् पदाद् यत् दृश्यम्। अर्थ:-प्रथमासमर्थात् पद-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्मिन्निति सप्तम्यर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं दृश्यं चेत् तद् भवति। उदा०-पदं दृश्यम्=द्रष्टुं शक्यमस्मिन्-पद्य: कर्दम: । पद्या: पांसवः । आर्यभाषा: अर्थ-प्रथमा-समर्थ (पदम्) पद प्रातिपदिक से (अस्मिन्) सप्तमीविभक्ति के अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है (दृष्टम्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह दृश्य हो। उदा०-पद (पांव का चिह्न) है दृश्य दिखा जा सकने योग्य) इसमें यह-पद्य कीचड़। पद्य धूल। सिद्धि-पद्य: । पद+सु+यत्। पद्+य। पद्य+सु। पद्यः । यहां प्रथमा-समर्थ 'पद' शब्द से अस्मिन् अर्थ में तथा दृश्य अर्थ अभिधेय में इस सूत्र से यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। विशेष: यहां पदम्' शब्द का प्रथमा-विभक्ति में निर्देश होने से प्रथमा-समर्थ विभक्ति का ग्रहण किया जाता है। अस्य (षष्ठी) अर्थप्रत्ययविधिः यथविहितम् (यत्)- {आवर्हि उत्पाटि} (१) मूलमस्यावहि।८८। प०वि०-मूलम् १।१ अस्य ६ ।१ अवर्हि १।१ । अनु०--यत् इत्यनुवर्तते। अन्वयः-प्रथमासमर्थाद् मूलाद् अस्य यत् आवहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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