Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः अनु०-तत्र, साधुरिति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र प्रतिजनादिभ्य: साधु: खञ् ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थेभ्य: प्रतिजनादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्य: साधुरित्यस्मिन्नर्थे खञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-प्रतिजने साधु:-प्रातिजनीन: । जने जने साधुरित्यर्थः । इदंयुगे साधु:-ऐदंयुगीन: । संयुगे साधु:-सांयुगीन:, इत्यादिकम्।
प्रतिजन । इदंयुग । संयुग। समयुग। परयुग । परकूल । परस्यकुल । अमुष्यकुल । सर्वजन । विश्वजन । पञ्चजन। महाजन । इति प्रतिजनादयः ।।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-समर्थ (प्रतिजनादिभ्यः) प्रतिजन आदि प्रातिपदिकों से (साधुः) निपुण/योग्य अर्थ में (खञ्) खञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-प्रतिजन प्रत्येक जन में जो साधु-निपुण/योग्य है वह-प्रातिजनीन। इदं युग-इस जमाने में जो साधु है वह-ऐदंयुगीन। संयुग-युद्ध में जो साधु है वह-सांयुगीन।
सिद्धि-प्रातिजनीनः । प्रतिजन+डि+खञ् । प्रातिजन्+ईन। प्रातिजनीन+सु। प्रातिजनीनः।
यहां सप्तमी-समर्थ 'प्रतिजन' शब्द से साधु अर्थ में इस सूत्र से 'खञ्' प्रत्यय है। आयनेय०' (७१११२) से 'ख' के स्थान में 'ईन्' आदेश होता है। पूर्ववत् अंग को आदिवद्धि और अंग के अकार का लोप होता है। प्रतिजन' शब्द से 'अव्ययं विभक्ति०' (२।११५) से यथा-अर्थ (वीप्सा) अर्थ में अव्ययीभाव समास है। तृतीयासप्तम्योर्बहुलम् (२।२।८४) से सप्तमी-विभक्ति का लुक् नहीं होता है। ऐसे ही-ऐदंयुगीन:, सांयुगीन:
आदि।
ण:
(३) भक्ताण्णः ।१००। प०वि०-भक्तात् ५।१ ण: १।१। अनु०-तत्र, साधुरिति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र भक्तात् साधुर्णः ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीसमर्थाद् भक्त-शब्दात् प्रातिपदिकात् साधुरित्यस्मिन्नर्थे ण: प्रत्ययो भवति।
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