Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-वेशोभग्यः । वेशोभग+सु+यत्। वेशोभग्+य। वेशोभग्य+सु। वेशोभग्यः ।
यहां प्रथमा-समर्थ वेशोभग' शब्द से मतुप्-प्रत्यय के अर्थ में इस सूत्र से यल्' 'प्रत्यय होता है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। प्रत्यय के लित् होने से लिति' (६ ।४।१९०) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त होता है-वेशोभाय: । ऐसे ही-यशोभग्यः। ख:
(५) ख च।१३२। प०वि०-ख १।१ (सु-लुक्) च अव्ययपदम्।। अनु०-छन्दसि, मत्वर्थे, वेशोयशआदे:, भगाद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि प्रथमासमर्थाद् वेशोयशआदेर्भगाद् मत्वर्थे खो यच्च।
अर्थ:-छन्दसि विषये प्रथमासमर्थाद् वेशआदेर्यशआदेश्च भगात् प्रातिपदिकाद् मत्वर्थे खो यच्च प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(वेशोभग:) वेशोभगोऽस्यास्तीति-वेशोभगीन: (ख:)। वेशोभग्य: (यत्) । (यशोभग:) यशोभगोऽस्यास्तीति-यशोभगीन: (ख)। यशोभग्य: (यत्)।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में, प्रथमा-समर्थ विशोयशआदे:) वेशादि और यशादि (भगात्) भग प्रातिपदिक से (मत्वर्थे) मतुप्-प्रत्यय के अर्थ में (ख:) ख (च) और (यत्) यत् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-विशोभग) वेश-बलरूप भग-श्री आदि हैं इसके यह-वेशोभगीन (ख)। वेशोभण्य (यत्)। (यशोभग) यशरूप है भग-श्री आदि इसके यह-यशोभगीन (ख)। यशोभग्य (यत्)।
सिद्धि-(१) वेशोभगीन: । वेशेभग+सु+ख। वेशोभग्+ईन। वेशोभगीन+सु । वेशोभगीन:।
यहां प्रथमा-समर्थ वेशोभग' शब्द से मतुप्-प्रत्यय के अर्थ में इस सूत्र से 'ख' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'ख्' के स्थान में 'ईन' आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-यशोभगीनः ।
(२) वेशोभग्यः । यहां वेशोभग' शब्द से यथाविहित प्राग-हितीय यत्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६ ।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। प्रत्यय के तित् होने से 'तित् स्वरितम्' (६।१।१८२) से स्वरित स्वर होता है-वेशोभग्यः। ऐसे हीयशोभग्य:।
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