Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 609
________________ ५७२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-छन्दसि नक्षत्रात् स्वार्थे घ: । अर्थ:-छन्दसि विषये नक्षत्र-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वार्थे घ: प्रत्ययो भवति । अर्थविशेषस्याविधानात्स्वार्थे प्रत्ययो विधीयते। उदा०-नक्षत्रमेव-नक्षत्रियम्। 'नक्षत्रियेभ्य: स्वाहा' (यजु० २२।२८)। आर्यभाषा: अर्थ-छिन्दसि) वेदविषय में (नक्षत्रात्) नक्षत्र प्रातिपदिक से स्वार्थ में (घ:) घ प्रत्यय होता है। अर्थ-विशेष का विधान न करने से यहां स्वार्थ में प्रत्यय होता है। उदा०-नक्षत्र ही-नक्षत्रिय। नक्षत्रियेभ्य: स्वाहा' (यजु० २२।२८)। छन्दोभाषा में नक्षत्र' को ही नक्षत्रिय' कहा जाता है। नक्षत्र-तारा, ग्रह। सिद्धि-नक्षत्रियम् । नक्षत्र+सु+घ । नक्षत्र्+इय। नक्षत्रिय+सु । नक्षत्रियम् । यहां प्रथमा-समर्थ नक्षत्र' शब्द से स्वार्थ में एवं वैदिक भाषा में 'घ' प्रत्यय है। 'आयनेयः' (७।१।२) से घ्' के स्थान में इय्’ आदेश और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। तातिल् (२) सर्वदेवात् तातिल।१४२। प०वि०-सर्व-देवात् ५ ।१ तातिल् १।१। स०-सर्वश्च देवश्च एतयो: समाहार: सर्वदेवम्, तस्मात्-सर्वदेवात् (समाहारद्वन्द्व:)। अनु०-छन्दसि इत्यनुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि सर्वदेवाभ्यां स्वार्थे तातिल्। अर्थ:-छन्दसि विषये सर्वदेवाभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां स्वार्थे तातिल् प्रत्ययो भवति। उदा०- (सर्व:) सर्व एव-सर्वतातिः। 'सर्वतातिम्' (ऋ० १०।३६ ।१४)। (दव:) देव एव-देवताति: । ‘देवतातिम्' (ऋ० ३।१९।२)। आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (सर्वदेवात्) सर्व और देव प्रातिपदिकों से स्वार्थ में (तातिल्) तातिल् प्रत्यय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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