Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

View full book text
Previous | Next

Page 590
________________ चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५५३ उदा०-दूत का भाग वा कर्म-दूत्य। 'यदग्ने यासि दूत्यम् (ऋ० १।१२।४)। हे आने ! तू दूत-कर्म को प्राप्त होता है। सिद्धि-दूत्यम् । दूत+डस्+यत् । दूत्+य। दूत्य+सु। दूत्यम्। यहां षष्ठी-समर्थ 'दूत' शब्द से भाग और कर्म अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। विशेष दूत' शब्द यास्कीय निघण्टु (वैदिक कोष) में पद-नामों (४।२/४।३) में पठित है। पद=गतिशील। हननी-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहितम् (यत्) (१) रक्षोयातूनां हननी।१२१। प०वि०-रक्ष:-यातूनाम् ६।३ हननी ११ । स०-रक्षसश्च यातवश्च ते-रक्षोयातवः, तेषाम्-रक्षोयातूनाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। हन्यतेऽनया इति हननी 'करणाधिकरणयोश्च' (३ ।३।११७) इति करणे कारके ल्युट् प्रत्ययः। अनु०-यत्, छन्दसि इति चानुवर्तते। 'रक्षोयातूनाम्' इति षष्ठीनिर्देशात् षष्ठीसमर्थविभक्तिर्गृह्यते। अन्वय:-छन्दसि रक्षोयातुभ्यां हननी यत्। अर्थ:-छन्दसि विषये षष्ठीसमर्थाभ्यां रक्षोयातुभ्यां प्रातिपदिकाभ्यां हननीत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति । उदा०-(रक्षस:) रक्षसां हननी-रक्षस्या। ‘या वां मित्रावरुणौ रक्षस्या तनूः' (मै०सं० २।३१)। (यातव:) यातूनां हननी-यातव्या। 'यातव्या' (मै०सं० २।३।१)। आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में, षष्ठी-समर्थ (रक्षोयातूनाम्) रक्षस् और यातु प्रातिपदिकों से (हननी) हनन करनेवाला अर्थ में (यत्) यथाविहित यत् प्रत्यय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624