Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 592
________________ चतुर्थाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-रिवती) रेवती (नदी) की प्रशंसा करना-रेवत्य। यद् वो रेवती रेवत्यम् (का०सं०१८)। (जगती) जगती (गौ) की प्रशंसा करना-जगत्य। यद् वो जगती जगत्यम्' (का०सं० १८)। (हविष्या) हविष्या हवि (जल) के लिये हितकारिणी की प्रशंसा करना-हविष्या। यद् वो हविष्या हविष्यम्' (का०सं० १९८)। सिद्धि-(१) रेवत्यम् । रेवती+डस्+यत् । रेवत्+य। रेवत्यम+सु । रेवत्यम्। यहां षष्ठी-समर्थ रेवती' शब्द से प्रशस्य (प्रशंसा करना) अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग्-हितीय यत्' प्रत्यय है। 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के ईकार कालोप होता है। ऐसे ही-जगत्यम् । (२) हविष्यम् । हविण्+डे+यत् । हविष्+य । हविष्य+टाप्। हविष्या।। हविष्या+डस्+यत्। हविष्य्+य। हविष्+य । हविष्य+सु। हविष्यम्।। यहां प्रथम हविष्' शब्द से तस्मै हितम् (५।१५) से हित अर्थ में यत्' प्रत्यय और स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय करने पर हविष्या' शब्द सिद्ध होता है। तत्पश्चात् षष्ठी-समर्थ हविष्या' शब्द से प्रशस्य अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राग-हितीय यत्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होने पर हलो यमां यमि लोप:' (८।४।६४) से यकार का भी लोप हो जाता है। विशेष: रेवती' शब्द यास्कीय निघण्टु (वैदिक-कोष) में नदी नामों (१।१३) में 'जगती' शब्द गो-नामों (२।११) में और हवि:' शब्द उदक-नामों (१।१२) में पठित है। स्वम्-अर्थप्रत्ययविधिः यथाविहित (यत्) (१) असुरस्य स्वम्।१२३ । प०वि०-असुरस्य ६ १ स्वम् १।१। अनु०-यत्, छन्दसि इति चानुवर्तते । ‘असुरस्य' इति षष्ठी-निर्देशात् षष्ठीसमर्थविभक्तिगृह्यते। अन्वय:-छन्दसि षष्ठीसमर्थाद् असुरात् स्वं यत् । अर्थ:-छन्दसि विषये षष्ठीसमर्थाद् असुर-शब्दात् प्रातिपदिकात् स्वमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं यत् प्रत्ययो भवति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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