Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-मासिकम् । मास+कि+ठञ् । मास+इक । मासिक+सु । मासिकम्।
यहां सप्तमी-समर्थ 'मास' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३ ।५०) से ठ' के स्थान में 'इक्’ आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-आर्धमासिकम्, सांवत्सरिकम् । ठञ्
(६६) श्राद्धे शरदः।१२। प०वि०-श्राद्धे ७१ शरद: ५।१। अनु०-शेषे, कालात्, ठञ् इति चानुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०कालात् शरद: शेषे ठञ् श्राद्धे ।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थात् कालविशेषवाचिन: शरद: प्रातिपदिकात् शेषेष्वर्थेषु ठञ् प्रत्ययो भवति, श्राद्धेऽभिधेये।
उदा०-शरदि भवं शारदिकं श्राद्धम्।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (कालात्) कालविशेषवाची (शरदः) शरद् प्रातिपदिक से (शेषे) शेष अर्थों में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है (श्राद्धे) यदि यहां श्राद्ध-कर्म अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-शरदि भवं शारदिकं श्राद्धम् । शरद् ऋतु में होनेवाला-शारदिक श्राद्ध। सिद्धि-शारदिकम् । शरद्+डि+ठञ् । शारद्+इक। शारदिक+सु। शारदिकम्।
यहां सप्तमी-समर्थ कालविशेषवाची 'शरद्' शब्द से शेष अर्थों में तथा श्राद्ध अभिधेय में इस सूत्र से ठन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: (१) पितृयज्ञ' अर्थात् जिसमें देव जो विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ानेहारे, पितर जो माता-पिता आदि वृद्ध, ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी। पितृयज्ञ के दो भेद हैं :- एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण। 'श्राद्ध' अर्थात् 'श्रत्' सत्य का नाम है। 'श्रत सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा, श्रद्धया यत् क्रियते तच्छ्राद्धम् जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाये उसको 'श्रद्धा' और जो 'श्रद्धा' से कर्म किया जाये उसका नाम श्राद्ध है। और-तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत् तर्पणम्' जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता-पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उसका नाम तर्पण' है। परन्तु यह जीवितों के लिए है, मृतकों के लिये नहीं (सत्यार्थप्रकाश समु० ४)।
(२) आश्विन और कार्तिक मास को शरद् ऋतु कहते हैं।
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