Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः
(३) राष्ट्रिय: । राष्ट+डि+घ । राष्ट्र+इय । राष्ट्रिय+सु । राष्ट्रियः ।
यहां सप्तमी-समर्थ 'राष्ट्र' शब्द से जात अर्थ में 'राष्ट्रावारपाराद् घखौ' (४/२/९३) से यथाविहित 'घ' प्रत्यय है । 'आयनेय०' (७/१/२) से 'घ्' के स्थान में 'इय्' आदेश होता है।
विशेष: स्रुघ्न- एक जनपद का नाम जो किसी समय पाटलिपुत्र से एक मंजिल पर था (वर्तमान नाम-सुघ है (श० कौ० } ) ।
ठप्
(२) प्रावृषष्ठप् । २६ ।
प०वि० - प्रावृषः ५ | १ ठप् १ । १ । अनु०-तत्र, जात इति चानुवर्तते । अन्वयः- तत्र प्रावृषो जातष्ठप् ।
अर्थः- तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थात् प्रावृषः प्रातिपदिकाज्जात इत्यस्मिन्नर्थे ठप् प्रत्ययो भवति ।
३२७
उदा० - प्रावृषि जातः प्रावृषिक: ।
आर्यभाषाः अर्थ- (तत्र) सप्तमी विभक्ति - समर्थ (प्रावृषः) प्रावृट् प्रातिपदिक से (जात:) जात अर्थ में ठप् प्रत्यय होता है।
उदा०
० - प्रावृषि जातः प्रावृषिकः । प्रावृट्-वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुआ- प्रावृषिक । सिद्धि प्रावृषिकः । प्रावृष् + ङि+ठप् । प्रावृष्+इक। प्रावृषिक+सु । प्रावृषिकः । यहां सप्तमी-समर्थ 'प्रावृष्' शब्द से इस सूत्र से जात अर्थ में ठप् प्रत्यय है। 'ठस्येकः' (७1३1५०) से 'ठू' के स्थान में 'इक्' आदेश होता है।
यह 'प्रावृष एण्यः' (४।३।१७ ) का अपवाद है । प्रावृट् शब्द से भव- आदि शेष अर्थों में एण्य प्रत्यय होता है और जात अर्थ में इस सूत्र से ठप् प्रत्यय ही होता है। 'ठप्' प्रत्यय में पकार 'अनुदात्तौ सुप्पितौं' (३।१।४) से अनुदात्त स्वर के लिये है- प्रावृर्षिक ।
वुञ्
(३) संज्ञायां शरदो वुञ् । २७ ।
प०वि० - संज्ञायाम् ७।१ शरद: ५ ।१ वुञ् १ । १ । अनु०-तत्र, जात इति चानुवर्तते । अन्वयः -तत्र शरदो जातो वुञ् संज्ञायाम् ।
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