Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-आपूपिकः । अपूप+जस्+ठक् । अपूप+इक। आपूपिक+सु। आपूपिक।
यहां प्रथमा-समर्थ, देश-काल से रहित, अचित्त (जड़) वाचक एवं भक्तिवाची 'अपूप' शब्द से अस्य-इसका अर्थ में इस सूत्र ठक्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३५०) से ह' के स्थान में इक्' आदेश, किति च' (७।२।११८) अंग को आदिवृद्धि और पूर्ववत् अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-शाष्कुलिक, पायसिकः । ठञ्
{भक्तिः
(६) महाराजाट्ठञ् ।६७। प०वि०-महाराजात् ५।१ ठञ् १।१। अनु०-स:, अस्य, भक्तिरिति चानुवर्तते । अन्वय:-स महाराजाद् अस्य ठञ् भक्तिः ।
अर्थ:-स इति प्रथमासमर्थाद् महाराजात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं भक्तिश्चेत् तद् भवति।
उदा०-महाराजो भक्तिरस्य-माहाराजिकः।
आर्यभाषा: अर्थ-(स:) प्रथमा-समर्थ (महाराजात्) महाराज प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठी-विभक्ति के अर्थ में (ठञ्) ठञ् प्रत्यय होता है (भक्तिः ) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह भक्ति हो।
उदा०-महाराज है भक्ति इसकी यह-माहाराजिक। महाराज-कुबेर ।
सिद्धि-माहाराजिकः । महाराज+सु+ठञ् । माहाराज+इक । माहाराजिक+सु। माहाराजिकः।
यहां प्रथमा-समर्थ, भक्तिवाची 'महाराज' शब्द से अस्य इसका अर्थ में इस सूत्र से ठम्' प्रत्यय है। पूर्ववत् ' के स्थान में 'इक्’ आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है।
विशेष: महाराज-देवता वैश्रवण या कुबेर की संज्ञा थी। अतिप्राचीनकाल में राजा का एक अर्थ यक्ष था। यक्षों के राजा होने के कारण कुबेर महाराज कहलाये। इन्हें ही कालिदास (मेघदूत १।३) ने राजराज कहा है (पाणिनिकालीन भारतवर्ष पृ० ३५५) । वुन्
{भक्तिः (१०) वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्।६८। प०वि०-वासुदेव-अर्जुनाभ्याम् ५ ।२ वुन् ११ ।
स०-वासुदेवश्च अर्जुनश्च तौ वासुदेवार्जुनौ, ताभ्याम्-वासुदेवार्जुनाभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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