Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः प्रत्ययस्य बहुलं लुक्
(१३) नक्षत्रेभ्यो बहुलम् ।३७ । प०वि०-नक्षत्रेभ्य: ५।३ बहुलम् १।१। अनु०-तत्र, जात:, लुगिति चानुवर्तते। अन्वय:-तत्र नक्षत्रेभ्यो जातो बहुलं लुक् ।
अर्थ:-तत्र इति सप्तमीविभक्तिसमर्थेभ्यो नक्षत्रवाचिभ्य: प्रातिपदिकेभ्यो जात इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययस्य बहुलं लुग् भवति ।
उदा०-रोहिण्यां जातो रोहिण: (लुक्) । रौहिण: (अण्) । मृगशिरसि जातो मृगशिरा: (लुक्) । मार्गशीर्षः (अण्) ।
आर्यभाषा: अर्थ-(तत्र) सप्तमी-विभक्ति-समर्थ (नक्षत्रेभ्यः) नक्षत्रवाची प्रातिपदिकों से (जात:) जात अर्थ में यथाविहित प्रत्यय का (बहुलम्) प्राय: (लुक्) लोप होता है।
उदा०-रोहिण्यां जातो रोहिण: (लुक्) । रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुआ-रोहिण। रौहिण: (अण)। रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुआ-रौहिण। मृगशिरसि जातो मृगशिरा: (लुक्) । मृगशिरा नक्षत्र में उत्पन्न हुआ-मृगशिरा। मार्गशीर्षः (अण्)। मृगशिरा नक्षत्र में उत्पन्न हुआ-मार्गशीर्ष।
सिद्धि-(१) रोहिणः। रोहिणी+डि+अण। रौहिण+०। रौहिण+सु । रोहिणः ।
यहां सप्तमी-समर्थ, नक्षत्रवाची 'रोहिणी' शब्द से जात अर्थ में प्राग्दीव्यतोऽण (४।१।८३) से यथाविहित अण् प्रत्यय है। इस सूत्र से उसका लुक् होता है। तद्धित प्रत्यय का लुक् हो जाने पर लुक्तद्धितलुकि' (१।२।४९) से रोहिणी में विद्यमान स्त्रीप्रत्यय का भी लुक हो जाता है।
(२) रौहिण:। यहां सप्तमी-समर्थ नक्षत्रवाची 'रोहिणी' शब्द से जात अर्थ में पूर्ववत् 'अण्' प्रत्यय है। यहां विकल्प पक्ष में 'अण्' प्रत्यय का लुक नहीं होता है। तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अंग को आदिवृद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के ईकार का लोप होता है।
(३) मृगशिरा: । मृगशिरस्+सु । मृगशिराः।
यहां 'अत्वसन्तस्य चाधातो:' (६।४।१४) से अंग को दीर्घ होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) मार्गशीर्ष: । यहां 'अचि शीर्षः' (६।११६२) से शिरस्' के स्थान में शीर्ष आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
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