Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 03
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२७७ यहां सप्तमी-समर्थ, वृद्धसंज्ञक काशि' शब्द से शेष अर्थों में इस सूत्र से ठञ्' प्रत्यय है। ठस्येकः' (७।३ १५०) से '' के स्थान में 'इक्’ आदेश और तद्धितेषचामादे:' (७।२।११५) से अंग को पर्जन्यवत् आदिवृद्धि होती है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के ईकार का लोप होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में की टिट्ढाणज' (४।१।१५) से 'डीप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-बैदिकी।
(२) काशिका । काशि+डि+जिठ। काश्+इक। काशिक+टाप। काशिक+आ। काशिका+सु। काशिका।
यहां सप्तमी-समर्थ, वृद्धसंज्ञक काशि' शब्द से पूर्ववत् जिठ' प्रत्यय है। जिठ' प्रत्यय में इकार उच्चारणार्थ है। '' के स्थान में पूर्ववत् इक् आदेश तथा पूर्ववत् अंग को आदिवृद्धि होती है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही-बैदिका।
(२) यहां वृद्धात्' पद की अनुवृत्ति होने से वृद्धसंज्ञक काशि' आदि शब्दों से प्रत्यय का विधान किया गया है किन्तु काश्यादि गण में जो अवृद्धसंज्ञक शब्द पढ़े हैं उनसे वचनप्रामाण्य से प्रत्यय होता है। ठञ्+मिठ:
(२६) वाहीकग्रामेभ्यश्च ।११६ । प०वि०-वाहीक-ग्रामेभ्य: ५।३ च अव्ययपदम् ।
स०-वाहीकानां ग्रामा इति वाहीकग्रामा:, तेभ्य:-वाहीकग्रामेभ्य: (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-शेष, वृद्धाद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-यथासम्भव०वृद्धेभ्यो वाहीकग्रामेभ्यश्च शेषे ठझिठौ।
अर्थ:-यथासम्भवविभक्तिसमर्थेभ्यो वृद्धसंज्ञकेभ्यो वाहीकग्रामवाचिभ्य: प्रातिपदिकेभ्यश्च ठनिठौ प्रत्ययौ भवतः ।
उदा०-(ठञ्) शाकले भवा शाकलिकी। (जिठः) शाकले भवा शाकलिका। (ठञ्) मान्थवे भवा मान्थविकी। (जिठः) मान्थवे भवा मान्थविका।
आर्यभाषा: अर्थ-यथासम्भव-विभक्ति-समर्थ (वृद्धात्) वृद्धसंज्ञक (वाहीकग्रामेभ्यः) वाहीक-ग्रामवाची प्रातिपदिकों से (च) भी (उजिठौ) ठञ् और जिठ प्रत्यय होते हैं।
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