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नियमसार अनुशीलन कर्मों का नाश करनेवाले, पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि के समान, नित्य अविकारी सिद्ध भगवन्तों की मैं निरन्तर शरण लेता हूँ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन छन्दों के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"नग्न दिगम्बर भावलिंगी मुनिराज तो परम वीतरागी होते हैं। अज्ञानी जीव स्त्री के पुष्ट अवयवों का स्पर्श करके सुख मानता है; परन्तु उसमें सुख नहीं है, सुख तो सिद्धदशा में है तू यह बताने के लिए अलंकार करके वीतरागी मुनिराज कहते हैं कि सिद्धदशारूपी स्त्री के पुष्ट स्तन अर्थात् पुष्टता को प्राप्त ज्ञान-दर्शन पर्याय के स्पर्श से, संवेदन से, वेदन से उत्पन्न हुए सुख का खजाना तो सिद्ध भगवान हैं।'
२२४वें श्लोक में कहा था कि लोकाग्र में विराजमान हैं और यहाँ कहा कि तीन लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं।
तीन लोक के अग्र में विराजमान हैं ह्र ऐसा कहकर तीन लोक की भी सिद्धि कर दी; क्योंकि तीन लोकों को नहीं माननेवाले के तो व्यवहार श्रद्धा भी नहीं है।"
उक्त दोनों छन्दों में से प्रथम छन्द में सिद्ध भगवान को नमस्कार किया गया है और दूसरे छन्द में उन्हीं सिद्ध भगवान की शरण में जाने की भावना व्यक्त की गई है।
दोनों ही छन्दों में सिद्ध भगवान को लोकाग्रवासी और पापरूपी भयंकर अटवी को जलानेवाली अग्नि बताया गया है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही छन्दों में विविध विशेषणों के माध्यम से लगभग एक समान ही भाव प्रगट किये गये हैं।
वस्तुत: बात यह है कि निश्चय निर्वाण भक्ति से सिद्धदशा प्राप्त होती है और व्यवहार निर्वाण भक्ति में सिद्ध भगवान की मन से प्रशंसा, वचन से स्तुति और उनको काया से नमस्कारादि किये जाते हैं ।।२२४-२२५।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११२१
२. वही, पृष्ठ ११२२-११२३
गाथा १३५ : परमभक्ति अधिकार
इसके बाद आनेवाले छन्द में भी सिद्ध भगवान की ही स्तुति की गई है। छन्द मूलत: इसप्रकार है ह्र
(वसंततिलका) ये मर्त्यदैवनिकुरम्बपरोक्षभक्ति
योग्या:सदा शिवमया: प्रवरा: प्रसिद्धाः। सिद्धा: सुसिद्धिरमणीरमणीयवक्त्रपंकेरुहोरुमकरंदमधुव्रताः स्युः ।।२२६।।
(हरिगीत) सुसिद्धिरूपी रम्यरमणी के मधुर रमणीय मुख । कमल के मकरंद के अलि वे सभी जो सिद्धगण || नरसरगणों की भक्ति के जो योग्य शिवमय श्रेष्ठ हैं।
मैं उन सभी को परमभक्ति भाव से करता नमन ||२२६ ।। जो मनुष्यों तथा देवों की परोक्ष शक्ति के योग्य है, सदा शिवमय है, श्रेष्ठ है और प्रसिद्ध है; वे सिद्ध भगवान सुसिद्धिरूपी रमणी के रमणीय मुख कमल के महा मकरन्द के भ्रमर हैं। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान अनुपम मुक्ति सुख का निरन्तर अनुभव करते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"अरहंत भगवान की भक्ति देव एवं चक्रवर्ती आदि तो प्रत्यक्ष समवशरण में करते हैं, पर सिद्धों की भक्ति परोक्ष करते हैं।'
सिद्धों का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं कि सिद्ध भगवान सदा शिवमय है, कल्याणमय है। सिद्धदशा का प्रगट होना ही शिव है, अन्य कोई शिव नहीं है।
सिद्ध भगवान श्रेष्ठ हैं, ‘परमात्मप्रकाश' में तो ऐसा अलंकार किया कि 'यदि भगवान सर्वश्रेष्ठ न होते तो उन्हें लोकान में कौन रखता ?'
सिद्ध भगवान प्रसिद्ध हैं; क्योंकि अनन्त सिद्ध हो गये हैं ह्र यह बात
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११२८