________________
नियमसार गाथा १४८ विगत गाथा में शुद्ध निश्चय आवश्यक की प्राप्ति के उपाय का स्वरूप बताया गया है और अब इस गाथा में निश्चय आवश्यक करने की प्रेरणा दे रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो । पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।।१४८।।
(हरिगीत) जो श्रमण आवश्यक रहित चारित्र से अति भ्रष्ट वे। पूर्वोक्त क्रम से इसलिए तम नित्य आवश्यक करो।।१४८|| आवश्यक से रहित श्रमण चारित्र से भ्रष्ट होते हैं; इसलिए पहले बताई गई विधि से आवश्यक अवश्य करना चाहिए।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ शुद्धोपयोग के सन्मुख जीव को शिक्षा दी गई है।
इस लोक में जब व्यवहारनय से भी समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि षट् आवश्यकों से रहित श्रमण चारित्र से भ्रष्ट है ह्र ऐसा कहा जाता है तो फिर शुद्ध निश्चयनय से परम-अध्यात्म भाषा में निर्विकल्प समाधिस्वरूप परम आवश्यक क्रिया से रहित निश्चयचारित्र से भ्रष्ट श्रमण तो चारित्र भ्रष्ट हैं ही हू ऐसा अर्थ है।
इसलिए हे मुनिवरो ! पहले कहे गये स्ववश परमजिन योगीश्वर के स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान व शुक्लध्यानरूप निश्चय परम आवश्यक को सदा अवश्य करो।”
इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"जिस क्रिया से मुक्ति प्राप्त हो, वह क्रिया आवश्यक क्रिया कहलाती है। देह की क्रिया, पुण्यरूप शुभराग की क्रिया, गुण-गुणी
गाथा १४८ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
१२३ का भेद, द्रव्य-गुण-पर्याय का चिन्तन यह आवश्यक क्रिया नहीं है।
परवशता/पराधीनता रहित निर्विकल्प निश्चय ज्ञानानन्द स्वरूप में स्थिरता होना ही मोक्ष की आवश्यक क्रिया है।
निर्मलस्वभाव की श्रद्धा और अरागी-तत्त्व में लीनतारूप आवश्यक रहित श्रमण आत्मा के चारित्र से अतिभ्रष्ट हैं। इसलिए सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक वीतरागी स्थिरतारूप आवश्यक करना चाहिए।'
इस कथन से यह भी समझ लेना चाहिए कि ज्ञानी गृहस्थ के भी आंशिकरूप से यह मोक्षमार्ग होता है, उनके भी निरन्तर निर्विकल्प शुद्धोपयोग में रहने की रुचि है। तथा सबसे पहले यही मुख्य है; इसके बीच आनेवाला राग तो अत्यन्त गौण है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि जब लोक में व्यवहार आवश्यकों से भ्रष्ट सन्तों को भ्रष्ट कहा जाता है तो फिर निश्चय आवश्यकों से भ्रष्ट तो भ्रष्ट हैं ही। कदाचित् कोई व्यवहार आवश्यक बाह्य रूप में सही भी पालता हो; किन्तु निश्चय परम आवश्यक से रहित है तो वह भी भ्रष्ट ही है ।।१४८।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं दो छन्द लिखते हैं। जिनमें प्रथम छन्द इसप्रकार है ह्र
(मंदाक्रांता) आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम् । सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्य: पुराण: वाचां दूरं किमपि सहजंशाश्वतंशंप्रयाति ।।२५६।।
(दोहा) आवश्यक प्रतिदिन करो अघ नाशक शिव मूल।
वचन अगोचर सुख मिले जीवन में भरपूर ।।२५६।। प्रत्येक आत्मा को अघ समूह के नाशक और मुक्ति के मूल एक १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९
२. वही, पृष्ठ ९०