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नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“सिद्ध भगवान समश्रेणी में सीधे लोकाग्र जाते हैं - यह स्वभावगति का परिणमन है। सिद्धक्षेत्र के अभिमुख अरहंत परमात्मा के परमशुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का सम्पूर्ण नाश होता है।
सिद्ध भगवान लोकाग्र में रहते हैं - यह व्यवहार है; वास्तव में तो वे अपने असंख्य प्रदेशों में स्थित रहते हैं। चैतन्य का क्षेत्र उनके असंख्य प्रदेश हैं। उनमें ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त गुण हैं। उनमें एकाग्र होने पर केवलज्ञानादि खिल उठते हैं। सिद्ध भगवान लोकाग्र में रहते हैं - ऐसा कहना व्यवहार है, वास्तव में तो वे अपने ज्ञान, आनन्द में रहते हैं। २"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि अन्तिम शुक्ल ध्यान के प्रभाव से आयुकर्म के साथ ही नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म का भी नाश हो जाने से अरहंत परमात्मा एक समय में सिद्ध हो जाते हैं, सिद्धशिला में विराजमान हो जाते हैं ।। १७६ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तीन छन्द लिखते हैं; उनमें से पहला छन्द इसप्रकार है
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(अनुष्टुभ् )
षट्कापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक् । सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ।। २९३ ।। ( दोहा )
छह अपक्रम से सहित हैं जो संसारी जीव ।
उनसे लक्षण भिन्न हैं सदा सुखी सिध जीव ।। २९३ ।। षट् अपक्रमों से रहित संसारी जीवों के लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न होता है । इसलिए वे सदाशिव अर्थात् सदासुखी सिद्धजीव ऊर्ध्वगामी होते हैं।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४६३
२. वही, पृष्ठ १४६४
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गाथा १७६ : शुद्धोपयोगाधिकार
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संसारी जीव अगले भव में जाते समय जो पूर्व-पश्चिम, उत्तरदक्षिण और ऊपर-नीचे ह्न इन छह दिशाओं में गमन करते हैं; उसे छह अपक्रम कहते हैं। सिद्ध जीवों की गति ऊर्ध्व होने से छह अपक्रमों से रहित होती है। उक्त छह अपक्रमगति वाले संसारी जीवों से सिद्धों का लक्षण भिन्न है। यही कारण है कि वे ऊर्ध्वगामी और सदा शिवस्वरूप हैं ।। २९३ ।।
( मंदाक्रांता )
बन्धच्छे दादतुलमहिमा देवविद्याधराणां प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः । लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते । । २९४ ।।
(वीर )
देव और विद्याधरगण से नहीं वंद्य प्रत्यक्ष जहान । बंध छेद से अतुलित महिमा धारक हैं जो सिद्ध महान || अरे लोक के अग्रभाग में स्थित हैं व्यवहार बरवान ।
रहें सदा अविचल अपने में यह है निश्चय का व्याख्यान ।। २९४ ॥ कर्मबंध का छेदन हो जाने से अतुल महिमा के धारक सिद्ध भगवान सिद्धदशा प्राप्त होने पर देव और विद्याधरों के द्वारा प्रत्यक्ष स्तुति गान के विषय नहीं रहे हैं ह्र ऐसा प्रसिद्ध है; तथापि वे व्यवहार से लोकाग्र में स्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में अविचलरूप से रहते हैं ।
अरहंत अवस्था में तो सौ इन्द्र उनके चरणों में नमते हैं, गणधरदेव आदि सभी मुनिराज भी उनकी आराधना करते हैं; किन्तु सिद्धदशा प्राप्त हो जाने पर यह सबकुछ नहीं होता; तथापि वे सिद्ध भगवान निज आत्मा में अविचलरूप से विराजमान रहकर अनन्तसुख का उपभोग करते हुए सिद्धशिला पर विराजमान रहते हैं ।। २९४ ।।
(अनुष्टुभ् ) पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्तये । पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफलप्रदान् ।। २९५ ।।