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नियमसार अनुशीलन
( हरिगीत )
देहपादपव्यूह से भयप्रद बसें वनचर पशु । कालरूपी अग्नि सबको दहे सूखे बुद्धिजल || अत्यन्त दुर्गम कुनयरूपी मार्ग में भटकन बहुत | इस भयंकर वन विषै है जैनदर्शन इक शरण || ३०६ ॥ सम्पूर्ण पृथ्वी को कंपाया शंखध्वनि से आपने । सम्पूर्ण लोकालोक है प्रभु निकेतन तन आपका ॥ हे योगि! किस नर देव में क्षमता करे जो स्तवन । अती उत्सुक भक्ति से मैं कर रहा हूँ स्तवन ॥ ३०७ ॥
सुकविजन पंकजविकासी रवि मुनिवर देव ने । ललित सूत्रों में रचा इस परमपावन शास्त्र को ॥ निज हृदय में धारण करे जो विशुद्ध आतमकांक्षी | वह परमश्री वल्लभा का अती वल्लभ लोक में ||३०८|| पद्मप्रभमलधारि नामक विरागी मुनिदेव ने । अति भावना से भावमय टीका रची मनमोहनी ॥ पद्मसागरोत्पन्न यह है उर्मियों की माल जो । कण्ठाभरण यह नित रहे सज्जनजनों के चित्त में || ३०९ ॥
( दोहा )
यदि इसमें कोई पद लगे लक्षण शास्त्र विरुद्ध । भद्रकवि रखना वहाँ उत्तम पद अविरुद्ध ||३१०||
( हरिगीत ) तारागण से मण्डित शोभे नील गगन में ।
अरे पूर्णिमा चन्द्र चाँदनी जबतक नभ में | हेयवृत्ति नाशक यह टीका तबतक शोभे । नित निज में रत सत्पुरुषों के हृदय कमल में ||३११ ||
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