________________
प्रकाशकीय अध्यात्मजगत के बहुश्रुत विद्वान डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल इक्कीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य विद्वानों में अग्रणी हैं। सन् १९७६ से जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्म और फिर उसके पश्चात् वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीय लेखों के रूप में आपके द्वारा आजतक जो कुछ भी लिखा गया, वह सब जिनअध्यात्म की अमूल्य निधि बन गया है, लगभग सभी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होकर स्थायी साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।
डॉ. भारिल्ल जितने कुशल प्रवक्ता हैं, लेखन के क्षेत्र में भी उनका कोई सानी नहीं है। यही कारण है कि आज उनके साहित्य की देश की प्रमुख आठ भाषाओं में लगभग ४५ लाख से अधिक प्रतियाँ प्रकाशित होकर जन-जन तक पहँच चुकी हैं। आपने अबतक ७८ कतियों के माध्यम से साढे तेरह हजार (१३,५००) पृष्ठ लिखे हैं और लगभग १५ हजार पृष्ठों का सम्पादन किया है, जो सभी प्रकाशित हैं। आपकी प्रकाशित कृतियों की सूची इसमें यथास्थान दी गई है।
प्रातःस्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द के पंच परमागम समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड़ आदि ग्रंथों पर आपका विशेषाधिकार है। आपके द्वारा लिखित और पाँच भागों में २२६१ पृष्ठों में प्रकाशित समयसार अनुशीलन के अतिरिक्त ४०० पृष्ठों का समयसार का सार व ६३८ पृष्ठों की समयसार की ज्ञायकभावप्रबोधिनी टीका जन-जन तक पहुँच चुकी है। ___ इसीप्रकार १२५३ पृष्ठों का प्रवचनसार अनुशीलन तीन भागों में, ४०७ पृष्ठों का प्रवचनसार का सार एवं ५७२ पृष्ठों की प्रवचनसार की ज्ञानज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी टीका भी प्रकाशित होकर आत्मार्थी जगत में धूम मचा चुकी हैं।
नियमसार अनुशीलन तीनों भागों में ९१८ पष्ठों में तथा ५०० पृष्ठों की नियमसार ग्रंथ की आत्मप्रबोधिनी टीका ह्र इसप्रकार सर्वश्रेष्ठ दिगंबराचार्य कुदकुद की अमरकृति समयसार, प्रवचनसार और नियमसार पर ही आप कल मिलाकर ७१४९ पृष्ठ लिख चुके हैं।
समयसार तथा प्रवचनसार की भाँति यह नियमसार भी गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म विषयों का प्रतिपादक ग्रंथाधिराज है। आचार्य कुन्दकुन्द के इन ग्रंथों को समझने के लिए बौद्धिक पात्रता की आवश्यकता तो अधिक है ही, विशेष रुचि एवं खास लगन के बिना इन ग्रथों के हार्द को समझ पाना संभव नहीं है।
अत: पाठकों को अधिक धैर्य रखते हुए इन ग्रंथों का स्वाध्याय गहराई से करना चाहिए।
यह तो सर्वविदित ही है कि डॉ. हकमचन्द भारिल्ल : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नामक शोधप्रबंध पर मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ने डॉ. महावीरप्रसाद जैन, टोकर (उदयपुर) को पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की है। इसी विश्वविद्यालय से डॉ. मंजू चतुर्वेदी के निर्देशन में श्रीमती सीमाजिनेन्द्र जैन ने 'डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल के साहित्य का समालोचनात्मक अनुशीलन' विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया है। डॉ. भारिल्ल के साहित्य को आधार बनाकर अनेक छात्रों ने हिन्दी एम.ए. के निबंध के पेपर के बदले में लिखे जानेवाले लघु शोध प्रबंध भी लिखे हैं, जो राजस्थान विश्वविद्यालय में स्वीकृत हो चुके हैं।
अरुणकुमार जैन बड़ामलहरा द्वारा लिखित डॉ. भारिल्ल का कथा साहित्य नामक लघु शोध प्रबंध प्रकाशित भी हो चुका है एवं अनेक शोधार्थी अभी भी डॉ, भारिल्ल के साहित्य पर शोधकार्य कर रहे हैं।
अभी-अभी २८ अक्टूबर २००९ को मंगलायतन विश्वविद्यालय, अलीगढ़ ने आपको डी.लिट की मानद उपाधि से अलंकृत कर स्वयं को गौरवान्वित किया है।
आपके द्वारा विगत २८ वर्षों से धर्मप्रचारार्थ लगातार विदेश यात्रायें की जा रही हैं, जिनके माध्यम से वे विश्व के कोने-कोने में तत्त्वज्ञान का अलख जगा रहे हैं।
इस पुस्तक की टाइपसैटिंग श्री दिनेश शास्त्री ने मनोयोगपूर्वक की है तथा आकर्षक कलेवर में मुद्रण कराने का श्रेय प्रकाशन विभाग के प्रबंधक श्री अखिल बंसल को जाता है। अत: दोनों महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं।
प्रस्तुत सस्करण की प्रकाशन व्यवस्था और मूल्य कम करने में जिन दातारों ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, उनकी सूची इसी ग्रंथ में अन्यत्र प्रकाशित है; उन्हें भी ट्रस्ट की ओर से हार्दिक धन्यवाद ।
सभी आत्मार्थी जिज्ञासु पाठक इस अनुशीलन का पठन-पाठन कर आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करें ह्र इसी मंगल भावना के साथ ह्र दि.१३ नवम्बर २०१२ ई.
ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. प्रकाशनमंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर